आज्ञा घोषित करें कि इन सभी भिक्षु-भिक्षुणियों को ब्याह करना होगा। इससे एक लाख परिवार तैयार हो जायेंगे, जो दस साल के भीतर दस लाख लड़के-लड़कियाँ पैदा करेंगे, जो सम्राट के लिए सैनिक बनेंगे। द्वितीय काङ सम्राट ने घोषित कर दिया था कि नये विहारों का बनाना, मूर्ति स्थापना तथा बौद्ध ग्रन्थों का लिखना अपराध माना जाए। परन्तु इस समय में भी चीन में 4600 मठ-विहार, 40 हज़ार मन्दिर और ढाई लाख से ऊपर बौद्ध भिक्षु थे। नवीं शताब्दी के मध्य में बौद्ध विद्वानों की सब सम्पत्ति जब्त कर ली गई। पीतल की मूर्तियाँ गलाकर सिक्के ढाले गए, लोहे की मूर्तियाँ तोड़कर किसानों के हथियार बनाए गए। सोने-चाँदी की मूर्तियाँ तोड़कर, सोना-चाँदी राजकोष में जमा कर लिया गया।
सम्राट् की आज्ञा से 4600 विहार नष्ट कर दिये गये। दो लाख 60 हज़ार भिक्षु-भिक्षुणियों को गृहस्थ बना दिया गया। 40 हज़ार मन्दिर ढहा दिए गए। दस लाख एकड़ जमीन जब्त कर ली गई और 1 लाख दासों को मुक्त कर दिया गया।
इस प्रकार चीन में बौद्धधर्म पर प्रथम प्रहार हुआ, जो फिर मध्य एशिया में फैलता हुआ भारत तक आ पहुँचा।
नवीं शताब्दी के मध्य में जब चीन में ये घटनाएँ घटित हो रही थीं, तब भारत में नालन्दा और विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों में वज्रयान की धूम मची हुई थी।
दसवीं शताब्दी के उषाकाल ही में काङ वंश समाप्त हो गया। और चीन में अराजकता, लूट-मार और अव्यवस्था फैल गई। इस काल में विलास भी चरम सीमा को पहुँच चुका था। काङ दरबार में 10 लाख नर्तकियाँ थीं। नृत्य में माधुर्य लाने के लिए उनके पैर बाँधकर छोटे कर दिए जाते थे। चीन में स्त्रियों के पैर बाँधकर उन्हें छोटे करने की रीति इसी काल में चली। इसी समय चीन में छापने के यन्त्र का आविष्कार हुआ, जो सम्भवत: बौद्धों ने ही किया।
तेरहवीं शताब्दी में चीन पर मंगोलों का अधिकार हुआ। मंगोल घुमक्कड़ जाति के भयंकर पुरुष थे। केवल चीन ही को नहीं सारे सभ्य संसार को इस महाप्रलय का सामना करना पड़ा। यह विनाश का अग्रदूत था मंगोल सम्राट् ते-मू-चिन् जिसे चंगेज खाँ भी कहा गया है। प्रशान्त सागर से भूमध्यसागर, साइबेरिया, हिमालय तक के विशाल भूभाग का वह अप्रतिम विजेता था। उसने अपने काल के सभी घुमक्कड़ कबीलों को एक सूत्र में संगठित किया और वह खानों का खान कहाया। मंगोलों के अनेक सम्राट् हुए। अन्त में तेरहवीं शताब्दी में कुबलै खान ने बौद्धधर्म स्वीकार कर उसे राजधर्म घोषित किया। 14वीं शताब्दी में ही मंगोल शासन का चीन में अन्त हुआ, परन्तु मंगोलों में बौद्धधर्म का विस्तार वैसा ही बढ़ता गया।
सातवीं शताब्दी के आरम्भ में जब भारत में महानृप हर्ष का अबाध शासन चल रहा था उस समय सारा तिब्बत घुमन्तू जीवन व्यतीत कर रहा था। इसी समय तिब्बत में सातवीं शताब्दी का सबसे बड़ा विजेता स्रोङगचन-सान-यो का जन्म हुआ। उसने सब घुमक्कड़ सरदारियों को तोड़कर भोट जाति का एकीकरण किया और उनकी सेना का संगठन कर, उसने आसाम से काश्मीर तक सारे हिमालय और चीन के तीन प्रदेशों को जीत लिया। उसके राज्य की सीमा हिमालय की तराई से पूर्वी मध्य एशिया के भीतर शान-सान की पहाड़ियों तक विस्तृत थी। तिब्बत से बाहर आते ही उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम