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मन्दिर में



मन्दिर में पूजन की तैयारी हो रही थी। रुद्राभिषेक हो रहा था। विविध वाद्य बज रहे थे। काशिराज और सिद्धेश्वर यथास्थान खड़े थे। देवदासियाँ देवता का श्रृंगार कर रही थीं-मंजु आरती की माला सजाती हुई मन ही मन कह रही थीं—"देव! जीवन-भर जिस कार्य का अभ्यास किया, आज वह नीरस हो गया। तुम यदि सचमुच अन्तर्यामी हो तो तुमने मेरे मन की दशा समझ ली होगी, और तुम्हें मुझ पर दया आई होगी। मैंने जीवनभर तुम्हारी तन- मन-धन से सेवा की है, अब तुम मेरी इच्छा पूरी करो देव!"

उसने अश्रुपूर्ण नेत्रों से देवता की और देखा, और पूजा का थाल उठाया। वह दो कदम आगे बढ़ी। देखा, सम्मुख दिवोदास खड़ा है। मंजु के हृदय में आनन्द की लहर दौड़ गई। उसने एक बार घृणापूर्वक सिद्धेश्वर की ओर देखा, और वह उलटकर दिवोदास के सम्मुख जा पहुँची। उसने दिवोदास की आरती उतारकर देवता की माला भी उसके गले में डाल दी। यह देख सब लोग 'पूजा भ्रष्ट हो गई', 'पूजा भ्रष्ट हो गई', चिल्ला उठे। बाजे एकदम बन्द हो गए। सिद्धेश्वर आपे से बाहर होकर चीख उठे। काशीराज ने क्रुद्ध स्वर में कहा:

"मूर्खे! पूजा भ्रष्ट कर दी।"

किन्तु मंजु ने उधर देखा ही नहीं। उसने आनन्द विभोर होकर दिवोदास के निकट आकर कहा—"पतिदेव, पूजा सार्थक हुई न?"

"हाँ प्रिये।"

काशिराज ने क्रुद्ध होकर कहा—"दोनों को बाँध लो।"

राजाज्ञा का तुरन्त पालन हुआ।

मंजु को उसी के कमरे में बन्द कर दिया गया और दिवोदास को नदी के उस पार दुर्गम दुर्ग में बन्दी कर दिया गया।

मंजु की सखी लता उसके लिए भोजन लेकर आई तो मंजु ने कहा, 'सखी, क्या तू उनका कुछ समाचार जानती है?"

"जानती हूँ-पर सुनकर तुम्हें दु:ख होगा।"

"फिर भी कह दे सखी।"

"मंजु, इस प्रेम में अपने को नष्ट न कर।"

"आह सखी, मैं प्यार का घाव खा बैठी हूँ।"

"किन्तु वह अज्ञात कुलशील भिक्षु है।"