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कमरे में वे पहुँचे, उस कमरे में विलास की सब सामग्री उपस्थित थी। गुदगुदा पलंग था, बड़ी-बड़ी वीणाएँ, मद्य के स्वर्णपात्र आदि सामग्री उपस्थिति थी। कमरा खूब सजा था। फूलों की मालाएँ जगह-जगह टँगी थीं। सिद्धेवश्वर मंजु का हाथ पकड़े आया और पलंग की ओर संकेत करके कहा—"यहाँ बैठो प्यारी!"

मंजु यह सम्बोधन सुनकर चमक उठी। उसने अधीर होकर कहा—"प्रभु मुझे जाने दीजिए।" वह उठ खड़ी हुई।

सिद्धेश्वर ने हाथ पकड़कर कहा—"जाती कहाँ हो प्यारी, मेरे हृदय में आकर बैठो।"

उसने खींचकर उसे आलिंगनपाश में बाँध लिया।

मंजु ने बलपूर्वक अलग होने की चेष्टा करते हुए कहा—"प्रभु, मैं आपकी पाली हुई पुत्री हूँ, छोड़िए! छोड़िए!!"

"बुद्धिमान जन अपने लगाए पेड़ का फल स्वंय खाते हैं, मैंने तुम्हें सींच सींचकर उसी क्षण के लिए बड़ा किया है।" उसने बलपूर्वक खींचकर उसे छाती से लगा लिया।

मंजु ने बल प्रयोग करते हुए चीखकर कहा—"छोड़िए, छोड़िए, प्रभु, छोड़िए!"

"डरो मत मंजु, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।"

"जाने दीजिए, छोड़िए।"

सिद्धेश्वर ने अब जरा कड़े स्वर में कहा—"पगली लड़की जानती है सिद्धेश्वर का मस्तक भूतेश्वर भगवान के साम से झुकता है। वही अब तेरे सामने झुक रहा है। मंजु, मुझे अपने यौवन का प्रसाद दे।" वह मंजु को छोड़कर उसके पैरों के पास घुटने टेककर बैठ गया। मंजु ने घबराकर लजाते हुए कहा—"उठिए प्रभु, यह आप क्या कर रहे हैं?"

"मुझे अपना प्यार दो, मंजु!"

"नहीं प्रभु, यह कभी नहीं हो सकता, मुझे जाने दीजिए।"

"तुम मेरे हृदय में बसी हो, जा कहाँ सकती हो प्रिये! कहो, तुम मेरी हो।"

उसने बलपूर्वक खींचकर उसे पुनः छाती से लगा लिया। मंजु ने क्रोध में भरकर जोर से उसे ढकेल दिया, वह गिरकर घायल हो गया। सिर से खून बहने लगा। उसने क्रोधित हो उठकर मंजु पर चोट करनी चाही, तभी अकस्मात् गुप्त द्वार खुल गया। दिवोदास और जयमंगल तलवार लिए घुस आए। और पीछे-पीछे सुखानन्द भी। इन सबको देखकर सिद्धेश्वर विमूढ़ हो गया।

सिद्धेश्वर-तुम कौन हो? (पहचान कर) पापिष्ठ बौद्ध भिक्षु और तुम अभागे युवक?

दिवोदास-मैं तुम्हारा काल हूँ। पापिष्ठ! पाखण्डी!

यह कहकर दिवोदास तलवार फेंककर सिद्धेश्वर से भिड़ गया। मल्ल युद्ध होने लगा। लड़ते-लड़ते एक पत्थर के खम्भे के पास दोनों जा पहुँचे। बीच-बीच में जयमंगल भी एकाध घूँसा सिद्धेश्वर को जमा देता था। मंजु खड़ी भयभीत देख रही थी। उस खम्भे पर भयानक काली की मूर्ति थी। वहाँ पहुँचकर सिद्धेश्वर ने चिल्लाकर कहा—"अब माँ चण्डी, लो नरबलि।" मूर्ति भयानक रीति से अट्टहास कर उठी। एक बार सब भयभीत हो गए। मंजु अधिक भयभीत हुई। दिवोदास भी डर गया। पृथ्वी काँपने लगी और सैकड़ों बिजलियाँ चमकती और गर्जती दीख पड़ने लगीं। देखते ही देखते वह मूर्ति धरती में धँसने लगी। और कक्ष में अग्नि की ज्वाला भभक उठी। मंजु मूर्छित हो गई।