अँधेरी रात में
शयन-आरती हो रही थी। मन्दिर में बहुत-से स्त्री-पुरुष एकत्र थे। संगीत-नृत्य हो रहा था। भक्त गण भाव-विभोर होकर नर्तिकाओं की रूप माधुरी का मधुपान कर रहे थे। दिवोदास एक अँधेरे कोने में छिपा खड़ा था। वह सोच रहा था, शयन-विधि समाप्त होते ही मेरा कार्य सिद्ध होगा। कैसी दुःख की बात है कि इन पाखंडियों के लिए मुझे भी छल-कपट करना पड़ रहा है। उसने देखा-दो अपरिचित पुरुष आकर उसके निकट ही छिपकर खड़े हो गये हैं। दिवोदास ने सोचा-ये लोग कौन हैं? और इस प्रकार छिपकर खड़े होने में इनकी क्या दुरभिसन्धि है। वह इतना सोच ही रहा था कि आगन्तुकों में से एक ने कहा-
"किन्तु मंजुघोषा तो यहाँ दिखाई नहीं दे रही है?"
मंजु का नमा सुनकर दिवोदास के कान खड़े हो गये। उसने सोचा-यह कोई नया षड्यन्त्र है। वह ध्यान से उनकी बातें सुनने लगा।
आगन्तुकों में एक गोरख ब्राह्मण था, दूसरा जयमंगल सेठ।
सेठ ने कहा—"क्या यह सच है कि महाप्रभु भी उस छोकरी पर मुग्ध हैं?"
गोरख ने उसका हाथ दबाकर कहा—"चुप-चुप, महाप्रभु इधर ही आ रहे हैं।"
दोनों अन्धकार से निकलकर बाहर प्रकाश में आ खड़े हुए। सिद्धेश्वर को देखकर दोनों ने प्रणाम किया। सिद्धेश्वर ने हँसकर आशीर्वाद देते हुए कहा—"आज नगर की चहल- पहल छोड़कर श्रेष्ठि इस समय यहाँ कैसे?"
"महाराज, क्या यहाँ सब कुछ नीरस ही है?"
"जिसने कंचन-कामिनी का स्वाद ले लिया, उसे देव प्रसाद में क्या स्वाद मिलेगा?"
"गुरुदेव, जैसे बिना विरह के प्रेम का स्वाद नहीं मिलता, उसी प्रकार बिन विलास किए, शान्ति का अनुभव नहीं होता।"
"यह तो तुम्हारी भावुकता है श्रेष्ठि, जो कामना के अग्निकुण्ड में ईंधन डालेंगे शान्ति कहाँ मिलेगी?" उसने गोरख की ओर तीखी दृष्टि से देखा।
जयमंगल ने कहा—"महाराज, विधाता ने भोगविलास के लिए जवानी और त्याग के लिए बुढ़ापा दिया है।"
सिद्धेश्वर ने हँसकर कहा—"हो सकता है श्रेष्ठि, जब तक समय है भोग लो। फूल सूख जायेगा। गन्ध हवा में मिल जायेगी। जगत् में दो ही मार्ग हैं। भोग और योग। तुम भोग के मार्ग पर हो, मैं योग के। अच्छा, अब जाता हूँ। चिरंजीव रहो।"