"वाह क्या सुन्दर नाम है। हाँ, तो मेरा काम कब होगा?"
"महाराज, सब काम समय पर ही होते हैं। जल्दी करना ठीक नहीं है।"
"फिर भी, कब तक आशा करूँ?"
इसी समय श्रेष्ठि जयमंगल ने आकर प्रथम ब्राह्मण को दण्डवत् की फिर कोटपाल को अभिवादन किया और हँसकर कहा—"मेरे मित्र महाराज शम्भुपाल देव हैं, और मेरे मित्र गोरख महाराज भी हैं।"
गोरख ने मुँह बनाकर कहा—"सावधान सेट्ठि, ब्राह्मण किसी का मित्र नहीं, वह भूदेव हैं, जगत्पूज्य है।"
जयमंगल ने हँसकर कहा—"ब्राह्मण देवता प्रणाम करता हूँ।"
गोरख ने शुष्क वाणी से शिष्य को सम्बोधन करके कहा—"दे रे आशीर्वाद।"
शिष्य ने घास के तिनके से, जलपात्र से जल लेकर सेठ के सिर पर छिड़ककर आशीर्वाद दिया।
कोटपाल का इस ओर ध्यान न था। उसने सेठ के निकट जाकर कहा-"कहो मित्र, कल तो तुम जुए में इतना रुपया हार गए पर चेहरे पर अभी भी मौज-बहार है।"
जयमंगल ने कहा-"वाह, रुपया-पैसा हाथ का मैल है मित्र, उसके लिए सोच क्या। जब तक भोगा जाय, भोगिए।"
गोरख ब्राह्मण ने बीच में बात काटकर कहा-"इसमें क्या सन्देह। संयम और धर्म के लिए तो सारी ही उम्र पड़ी है, जब इन्द्रियाँ थक जायेंगी तब वह काम भी कर लिया जायेगा।"
कोटपाल ने जोर से हँसकर कहा-"बस धर्म की बात तो गोरख महाराज कहते हैं। बावन तोला पाव रत्ती। अच्छा, भाई हम जाते हैं। नगर का प्रबन्ध करना है। परन्तु कल का निमन्त्रण मत भूल जाना।"
"नहीं भूलूँगा कोटपाल महाराज।"
कोटपाल के चले जाने पर उसने होंठ बिचकाकर कहा-"देखा तुमने सेट्ठि, कैसा नीच आदमी है। मूर्ख धन और अधिकार के घमण्ड में ब्राह्मण को निमन्त्रण का लोभ दिखाकर अपने नीच वंश को भूल रहा है। हम श्रोत्रिमय ब्राह्मण हैं। जानते हो सेट्ठि, इसकी जाति क्या है?"
सेठ ने इस बात में रस लेकर कहा-"नहीं जानता। क्या जाति है भला?"
"साला चमार है कि जुलाहा, याद नहीं आ रहा है।"
इसी समय सामने से चन्द्रावली को आते देखकर वह प्रसन्न हो गया। उसने सेठ के कन्धे को झकझोरकर कहा-"देखो सेट्ठि, बिना बादल के बिजली, पहिचानते हो?"
"कोई गणिका प्रतीत होती है।"
"अरे नहीं, चन्द्रावली देवदासी है।"
सेट्ठि ने हँसकर आगे बढ़कर कहा—"आह, चन्द्रावली, अच्छी तो हो?"
चन्द्रावली ने हँसकर नखरे से कहा—"आपकी बला से। आप तो एकबारगी ही अपने मित्रों को भूल गए।"
सेठ ने खींसे निपोर कर कहा—"वाह, ऐसा भी कहीं हो सकता है! यह मुख भी