शम्भुदेव ने कपाल पर आँखें चढ़ाकर कहा—"नगर की चिन्ता मुझे न होगी तो क्या राजा को होगी! अरे, आखिर नगर कोतवाल मैं हूँ या राजा?"
सब मुसाहिबों ने हाथ बाँधकर कहा—"हाँ, महाराज, हाँ, आप ही नगर कोटपाल हैं धर्मावतार।"
"तब हमें ही राजा समझो। राजा के बाद बस..." उसने एक विशेष प्रकार का संकेत किया और हँस दिया।
सब मुसाहिबों ने बिना आपत्ति कोटपाल के मत में सहमति दे दी। इस पर प्रसन्न होकर शम्भुदेव ने कहा—"तब मुझे नगर की बस्ती की चिन्ता तो रखनी ही चाहिए। अरे चर मिथ्यानन्द, नगर का हाल-चाल कह।"
मिथ्यानन्द ने हाथ बाँधकर विनयावनत हो कहा—"जैसी आज्ञा महाराज, परन्तु अभयदान मिले तो सत्य-सत्य कहूँ।"
"कह, सत्य-सत्य कह। तुझे हमने अभयदान दिया। हम नगर कोटपाल हैं कि नहीं!"
"हैं, महाराज। आप ही नगर कोटपाल हैं।"
"तब कह, डर मत।"
"सुनिए महाराज! नगर में बड़ा गड़बड़झाला फैला हुआ है। वेश्यायें और उनके अनुचर भूखों मर रहे हैं। लोग अपनी-अपनी सड़ी-गली धर्म-पत्नियों से ही सन्तोष करने लगे। धुनियाँ-जुलाहे, चमार खुलकर मद्य पीते हैं, कोई कुछ नहीं कहता, पर ब्राह्मण को सब टोकते हैं। मद्य की बिक्री बहुत कम हो गई है, लोग रात-भर जागते रहते हैं, चोर बेचारों की घात नहीं लगती। वे घर से निकले—कि फँसे। सड़कों पर रात-भर रोशनी रहती है। भले घर की बहू-बेटियाँ अब छिपकर अभिसार को जाँय तो कैसे? और महाराज, अब तो ब्राह्मण भी परिश्रम करने लगे।"
चर की यह सूचना सुनकर कोटपाल को बहुत क्रोध आया। उसने कहा—"समझा- समझा, बहुत दिन से हमने जो नगर के प्रबन्ध पर ध्यान नहीं दिया, इसी से ऐसा हो रहा है। मैं सबको कठोर दण्ड दूँगा।"
सब मुसाहिबों ने हाथ बाँधकर कहा—"धन्य है धर्ममूर्ति, आप साक्षात् न्यायमूर्ति हैं।"
कोटपाल ने उपाध्यक्ष कुमतिचन्द्र की ओर मुँह करके कहा—"तुम क्या कहते हो कुमतिचन्द्र?"
कुमतिचन्द्र ने हाथ बाँधकर कहा—"श्रीमान् का कहना बिल्कुल ठीक है।"
परन्तु कोटपाल ने क्रुद्ध स्वर में कहा—"प्रबन्ध करना होगा, प्रबन्ध। सुना तुमने, नगर में बड़ा गड़बड़ हो रहा है!"
कोटपाल की डाँट खाने का उपाध्यक्ष अभ्यस्त था। उसने कुछ भी विचलित न होकर कहा—"हाँ, महाराज, हाँ।"
"तब करो प्रबन्ध।"
उपाध्यक्ष ने निर्विकार रूप से हाथ बाँधकर कहा—"जो आज्ञा महाराज। मैं अभी प्रबन्ध करता हूँ।"