"पुत्र, तुम जानते हो कि किससे बातें कर रहे हो?"
दिवोदास ने आचार्य की बात नहीं सुनी। वह आवेश में कहता गया—"मैंने देख लिया कि ये लोभी-कामी-दुष्ट और हत्यारे भिक्षु कितने पतित हैं। अब साफ-साफ कहिए, किसलिए आपने मुझे इस अन्धे कुएँ में ला पटका है? आपकी क्या दुरभिसन्धि है?"
आचार्य ने कुटिल हास्य हँसते हुए कहा—"तुम्हें सत्य ही पसन्द है सत्य ही सुनो- तुम्हारे पिता की अटूट सम्पदा को हड़पने के लिए।"
"यह मेरे जीते-जी आप न कर पाएँगे आचार्य।"
"तो तुम जीवित ही न रहने पाओगे।"
"आपने मुझे निर्वाण का मार्ग दिखाने को कहा था?"
"क्रोध न करो बच्चे, वह मार्ग मैं तुम्हें बताऊँगा। सुनो राजनीति की भाँति धर्मनीति भी टेढ़ी चाल चलती है। तुम जानते हो, हिन्दू धर्म जीव-हत्या का धर्म है। यज्ञ और धर्म के नाम पर बेचारे निरीह पशुओं का वध किया जाता है। यज्ञ के पवित्र कृत्यों के नाम पर मद्यपान किया जाता है। इस हिन्दू धर्म में स्त्रियों और मर्दो पर भी, उच्च जाति वालों ने पूरे अंकुश रख उन्हें पराधीन बनाया है। अछूतों के प्रति तथा छोटी जाति के प्रति तो अन्यायाचरण का अन्त ही नहीं है। वे देवदासियाँ जो धर्म बन्धन में बँधी हैं, पाप का जीवन व्यतीत करती हैं।"
दिवोदास सुनकर और मंजुघोषा का स्मरण करके अधीर हो उठा। परन्तु आचार्य कहते गए—"पुत्र, आश्चर्य मत करो, बौद्ध धर्म का जन्म इसी अधर्म के नाश के लिए हुआ है, किन्तु मूर्ख जनता को युक्ति से ही सीधा रास्ता बताया जा सकता है, उसी युक्ति को तुम छल कहते हो।"
"आचार्य, आपका मतलब क्या है?"
"यही कि मुझ पर विश्वास करो और देखो कि तुम्हें सूक्ष्म तत्त्व का ज्ञान किस भाँति प्राप्त होता है।"
"सूक्ष्म तत्त्व का या मिथ्या तत्त्व का?"
"अविनय मत करो पुत्र।"
"आप चाहते क्या हैं?"
"एक अच्छे काम में सहायता।"
"वह क्या है?"
"उस दिन उस देवदासी को तुमने देवी का गंधमाल्य दिया था न?"
"फिर?"
"जानते हो वह कौन है?"
"आप कहिए।"
"वह लिच्छविराज कुमारी मंजुघोषा है।"
"तब फिर?"
"उसकी माता लिच्छवि पट्टराजमहिषी नृसिंह देव की पत्नी, छद्मवेश में यहाँ अपनी पुत्री के साथ, सुनयना नाम धारण करके देवदासियों में रहती थी। उसे सिद्धेश्वर ने अन्धकूप में डलवा दिया है।"