"अजी वही, जिससे रात में फूल-माला लेकर चुपचाप कुछ दे दिया था।"
"और हमसे पूछा भी नहीं!"
"तुम सब दीवानी हो गई हो।"
"सच है बहिन, हमारी बहिन खड़े-खड़े लुट गई तो हम दीवानी भी न हों।"
मंजु उठकर खड़ी हुई। इस पर उसे सबने पकड़कर कहा :
"रूठ गई रानी, भला हमसे क्या परदा? हम तो एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।"
"और देवताओं की दासियाँ हैं।"
"अजी देवताओं की क्यों? देवताओं के दासों की भी।"
"पर सखी, भिक्षु है एक ही छैला।"
"वाह, कैसी बाँकी चितवन कैसा रूप!"
"भिक्षु है तो क्या है? सैकड़ों नागरों से बढ़-चढ़कर है।"
"चल रहने दे, दुनिया में एक से एक बढ़कर भरे पड़े हैं।"
"अरी जा, हमने देखा है तेरा वह छैला, गधे की तरह रेंकता है।"
"अपने उस भैंसे को देख, सींग भी नापे हैं उसके?"
"अरी लड़ती क्यों हो, भिक्षु है किसी बड़े घर का लड़का।"
"सुना है बड़े सेठ का बेटा है।”
"होगा, अब तो भिक्षु है।"
मंजु ने कहा—"भिक्षु है तो क्या, हृदय का तो वह राजा है!"
सखी ने कहा—"अरे, हमारी सखी मंजु उसके हृदय की रानी है।"
"अच्छा, तो फिर?"
"बस तो फिर, हिस्सा।"
"जाओ-जाओ, मुँह धो रखो।" मंजु भागकर दूसरी ओर चली गई। सखियाँ खिलखिलाकर हँसने लगीं। मंजु एक गीत की कड़ी गुनगुनाती फिर फूल चुनने लगी। चुनते- चुनते वह सखियों से दूर जा पड़ी। उधर उद्यान में एक तालाब था। उसी तालाब के किनारे हरी-हरी घास पर दिवोदास और सुखानन्द बैठे बातचीत कर रहे थे। फूल तोड़ते-तोड़ते मंजु वहीं जा पहुँची। दिवोदास को देखा तो वह धक् से रह गई। दिवोदास ने भी उसे देखा। उसने कहा—"पितृव्य, यह तो वही देवदासी आ रही है।"
"तो भैया, यहाँ से भगा चलो, नहीं फँस जाओगे।"
परन्तु दिवोदास ने सुखदास की बात नहीं सुनी। वह उठकर मंजु के निकट पहुँचा और कहा :
"यह तो अयाचित दर्शन हुआ।"
"किसका?"
"आपका।"
"नहीं, आपका।"
"किन्तु आप देवी हैं।"
"नहीं, मैं देवदासी हूँ।"
"भाग्यशालिनी देवी।"