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मनोहर प्रभात




बड़ा मनोहर प्रभात था। शीतल-मन्द समीर झकोरे ले रहा था। मंजुघोषा प्रातःकालीन पूजा के लिए संगिनी देवदासियों के साथ फूल तोड़ती-तोड़ती कुछ गुनगुना रही थी। उसका हृदय आनन्द से उल्लसित था। कोई भीतर से उसके हृदय को गुदगुदा रहा था। एक सखी ने पास आकर कहा :

"बहुत खुश दीख पड़ती हो, कहो, कहीं लड्डू मिला है क्या?"

मंजु ने हँसकर कहा—"मिला तो तुम्हें क्या?"

"बहिन, हमें भी हिस्सा दो।"

"वाह, बड़ी हिस्से वाली आई।"

"इतने में एक और आ जुटी। उसने कहा—"यह काहे का हिस्सा है बहिन!”

पहिली देवदासी ने कहा :

"अरे हाँ, क्या बहुत मीठा लगा बहिन?"

मंजु ने खीजकर कहा—"जाओ, मैं तुमसे नहीं बोलती।"

सबने कहा—"हाँ बहिन, यह उचित भी है। बोलने वाले नये जो पैदा हो गए।"

"तुम बहुत दुष्ट हो गई हो।"

"हमने तो केवल नजरें पहचानी थीं।"

"और हमने देन-लेन भी देखा था।"

"पर केवल आँखों-आँखों ही में।"

"होंठों में नहीं?"

"अरे वाह, इसी से सखी के होंठों में आनन्द की रेख फूटी पड़ती है।"

"और नेत्रों से रसधार बह रही है।"

मंजु ने कहा—"तुम न मानोगी?"

एक ने कहा—"अरी, सखी को तंग न करो। हिस्सा नहीं मिलेगा।"

दूसरी ने कहा—"कैसे नहीं मिलेगा, हम उससे माँगेंगी।"

तीसरी बोली––"किससे?"

"भिक्षु से।"

मंजु ने कोप से कहा—"लो मैं जाती हूँ।"

"हाँ-हाँ, जाओ बहिन, बेचारा भिक्षु..."

"कौन भिक्षु? कैसा भिक्षु?"