झाँझ।
सैकड़ों देवदासियों के नृत्य से, दर्शक विमुग्ध हो गए। आचार्य वज्रसिद्धि भी यह निषिद्ध दृश्य देखकर प्रसन्न हो रहे थे। एकाएक नृत्य रुक गया। सब नर्तकियाँ दो भागों में विभक्त हो गईं। मंजुघोषा धीरे-धीरे मंच पर आई। उसके सिर पर उत्कृष्ट जड़ाऊ मुकुट था। शरीर पर मोतियों का श्रृंगार था। अब केवल डमरू वादन होने लगा और मंजुघोषा ने ताण्डव नृत्य बिल्कुल शैव पद्धति पर करना प्रारम्भ किया। वातावरण एक विभिन्न कम्पन्न से भर गया। मंजुघोषा की नृत्य गति बढ़ती ही गई—वह तीव्र से तीव्रतर होती गई। उपस्थित समुदाय स्तब्ध रह गया। उस षोडशी बाला का भव्य रूप, अप्रतिम कला, दिव्य नृत्य, और उसका भावावेश इन सबने उपस्थित जनों की भावविमोहित कर दिया। नृत्य के अन्त में मंजुघोषा शिवमूर्ति के समक्ष पृथ्वी में प्रणिपात करने को लेट गई। सिद्धेश्वर ने कहा—"उठो मंजु, प्रसाद ग्रहण करो।"
मंजु धीरे-धीरे उठी। उसने पुजारी से प्रसाद ग्रहण किया।
वज्रसिद्धि अब तक जड़ बैठे थे। अब वे बोल उठे—"यह लड़की साक्षात् वज्रतारा प्रतीत होती है। अरे धर्मानुज, यह देवी वज्रतारा का गन्धमाल्य इस दासी को देकर कृतार्थ कर।"
उन्होंने कण्ठ के लाल फूलों की माला उतारकर आगे बढ़ाई, परन्तु धर्मानुज भी इस देवदासी के रूप सागर में डूब रहा था। उसने आचार्य की बात नहीं सुनी। दुबारा पुकारने पर वह चौंककर उठा-उसने माला दोनों हाथों में ले ली। मंजुघोषा के निकट पहुँचकर उसने काँपते हाथों से वह माला उस देवदासी के कण्ठ में डालना चाहा। पर मंजु ने अपने दोनों हाथ उसके लिए फैला दिए। दोनों के नेत्र मिले। दोनों बाहर की सुध भूलकर वैसे के वैसे ही खड़े रह गए। दोनों के नेत्र चमक उठे, उनमें एक लाज व्याप गई, होंठ काँपने लगे और शरीर कंटकित हो गया। दिवोदास ने साहस करके माला मंजु के कण्ठ में डाल दी। मंजु ठगी-सी खड़ी रह गई। दिवोदास अपने स्थान पर लौट आया। धीरे-धीरे मंजुघोषा अपने आवास को लौट गई। दिवोदास प्यासी आँखों से उसकी मनोहर मूर्ति को देखता रहा। महाराज महाआचार्य और पुजारी तथा सब लोग उठकर अपने-अपने स्थान को चल दिए। दिवोदास भी घायल पक्षी की भाँति लड़खड़ाता हुआ अपने आवास पर पहुँचा। उसकी भूख-प्यास जाती रही।