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इतने में दो-तीन भिक्षु वहाँ और आ गए। उन्होंने सुखदास की अन्तिम बात सुन ली। सुनकर वे बोल उठे—"मत कहो, मत कहो, कहने से पाप लगेगा।"

उसी समय आचार्य भी उधर आ निकले। आचार्य ने कहा :

"तुम लोग यहाँ क्या गोष्ठी कर रहे हो?"

"आचार्य, यह भिक्खु कहता है...।"

"क्या?"

"समझ गया, तुम लोगों ने महानिर्वाण सुत्त घोखा नहीं।"

"आचार्य, यह भिक्खु पूछता है...।"

"क्या?"

"पाप, पाप, भारी पाप।"

"अरे कुछ कहोगे भी या यों ही पाप-पाप?"

"कैसे कहें, पाप लगेगा आचार्य।"

"कहो, मैंने पवित्र वचनों से तुम्हें पापमुक्त किया।"

"तब सुनिये, वह जो नया भिक्षु दिवोदास...।"

"धर्मानुज कहो। वह तो महातामस में है?"

"जी हाँ।"

"महातामस में, वह चार मास में दोषमुक्त होगा।"

"किन्तु यह भिक्खु कहता है कि मैं वहाँ जाऊँगा।"

"क्यों रे?" आचार्य ने आँखें निकालकर सुखदास की ओर देखा।

सुखदास ने बद्धांजलि होकर कहा—"किन्तु आचार्य, भिक्षु धर्मानुज ने क्या अपराध किया?"

"अपराध? अरे तू उसे केवल अपराध ही कहता है।"

"आचार्य, मेरा अभिप्राय पाप से है।"

"महापाप किया है उसने, उसका मन भोग-वासना में लिप्त है, वह कहता है, उस पर बलात्कार हुआ है। मन की शुद्धि के लिए संघ स्थविर ने उसे चार मास के महातामस का आदेश दिया है।"

"कैसी मन की शुद्धि आचार्य?"

"अरे! तू कैसा भिक्षु है विहार के साधारण धर्म को भी नहीं जानता?"

"किन्तु इसी बात में इतना दोष?"

"बुद्धं शरणं। तू निरा मूर्ख है। तुझे भी प्रायश्चित्त करना होगा?"

"क्या गरम सीसा पीना होगा?"

"ठीक नहीं कह सकता, विधान पिटक में तेरे लिए दस हजार प्रायश्चित्त हैं।"

"बाप रे, दस हजार?"

"जाता हूँ, अभी मुझे सूत्रपाठ करना है। देखता हूँ विहार अनाचार का केन्द्र बनता जा रहा है।"

आचार्य बड़बड़ाते एक ओर चल दिए। सुखदास मुँह बाए खड़ा रह गया।