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"सिद्ध करने से क्या होगा?"

"डाकिनी सिद्ध होगी। खेचर मुद्रा प्राप्त होगी।"

"आपको खेचर मुद्रा प्राप्त है आचार्य?"

"है।"

"तो मुझे कृपा कर दिखाइए।"

"अरे अभद्र, गुरु पर सन्देह करता है, तुझे सौ योनि तक विष्ठाकीट बनना पड़ेगा।"

"देखा जाएगा। पर मैं आपका खेचर मुद्रा देखना चाहता हूँ।"

"किसलिए देखना चाहता है?"

"इसलिए कि यह केवल ढोंग है। इसमें सत्य नहीं है।"

"सत्य किसमें है?"

"बुद्ध वाक्य में।"

"कौन से बुद्ध वाक्य रे मूढ़!"

"सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीविका, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् विचार और सम्यक् ध्यान, ये आठ आर्ष सत्य है। जो भगवान् बुद्ध ने कहे हैं।"

"किन्तु, आचार्य तू की मैं?"

"आप ही आचार्य, भन्ते!'

"तो तू मुझे सिखाता है, या तू सीखता है?"

"मैं ही सीखता हूँ भन्ते!"

"तो जो मैं सिखाता हूँ सीख।"

"नहीं, जो कुछ भगवान् बुद्ध ने कहा, वही सिखाइए आचार्य।"

"तू कुतर्की है"

"मैं सत्यान्वेषी हूँ, आचार्य।"

"तू किसलिए प्रव्रजित हुआ है रे!"

"सत्य के पथ पर पवित्र जीवन की खोज में।"

"तू क्या देव-दुर्लभ सिद्धियाँ नहीं चाहता?"

"नहीं आचार्य?"

"क्यों नहीं?"

"क्योंकि वे सत्य नहीं हैं, पाखण्ड हैं।"

"तब सत्य क्या तेरा गृह-कर्म है?"

"गृह-कर्म भी एक सत्य है। इन सिद्धियों से तो वही अच्छा है।"

"क्या?"

"पति-प्राणा साध्वी पत्नी, रत्न-मणि-सा सुकुमार कुमार आनन्दहास्य और सुखपूर्ण गृहस्थ जीवन।"

"शान्तं पापं, शान्तं पापं!"

"पाप क्या हुआ भन्ते!"

"अरे, तू भिक्षु होकर अभी तक मन में भोग-वासनाओं को बनाए है?"