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बिहार और बंगाल में तेजी से फैल रहा था। स्थान-स्थान पर गुह्य समाजों की स्थापना हो गई थी। विक्रमशिला विद्याकेन्द्र भी इससे अछूता न था। इसके अतिरिक्त काशी, नवद्वीप वल्लभी तथा धारानगरी तक इस सम्प्रदाय के केन्द्र स्थापित हो गए थे। हिन्दू धर्म पर भी इस वाममार्ग का प्रभाव पड़ चुका था।

इस समय वृन्दावन में निम्बार्काचार्य कृष्ण का रूप प्रतिपादन कर रहे थे—जो निरन्तर गोपियों से घिरा रहता था। तथा भाँति-भाँति की रासलीला का प्रचार बढ़ता जाता था जिसमें परकीया भावना ही मुख्य रहती थी। निम्बार्काचार्य यद्यपि सुदूर दक्षिण के निवासी थे, पर वृन्दावन में उन्होंने अपना अड्डा बनाया था। उत्तर भारत के बहुत-से नर- नारी उनके शिष्य बनते जा रहे थे।

शैवधर्म की जड़ तो छठी शताब्दी में ही काफी मजबूत हो चुकी थी। कालिदास, भवभूति, सुबन्ध और बाणभट्ट जैसे महाविद्या-दिग्गज शैव कहे जाते थे। भारत के बाहर कम्बोज आदि देशों में भी इस धर्म का बड़ा प्रचार था। इसके अतिरिक्त दक्षिण पूर्वी एशिया के क्षेत्र, बृहत्तर भारत के अनेक देश इस धर्म से प्रभावित हो चुके थे। जिस प्रकार बौद्धों में वज्रयान सम्प्रदाय पनपा था, उसी प्रकार शैवों में पाशुपत और कापालिक सम्प्रदायों का जोर था। वज्रयान के समान शैवधर्म के ये दोनों मार्ग भी सिद्धियों और मन्त्रशक्ति में विश्वास रखते थे तथा सिद्धिप्राप्ति के लिए अनेक, रहस्यमय और गुह्य अनुष्ठान करते थे। सातवीं शताब्दी में जब चीनी यात्री हुएनसांग भारत में आया था तब बिलोचिस्तान तक में पाशुपत सम्प्रदाय की सत्ता थी। काशी में उस समय माहेश्वर की सौ फुट ऊँची ताम्बे की ठोस मूर्ति थी। इस समय वाराणसी पाशुपत आम्राय का केन्द्र बन रही थी। वहाँ इस समय सैकड़ों मन्दिर थे जिनमें पाशुपत धर्म की विधि से पूजा होती थी।

वज्रयानी की भाँति पाशुपत सम्प्रदाय वाले भी यह मानते थे कि साधक को जान- बूझकर भी वे सब काम करने चाहिए, जिन्हें लोग गर्हित समझते हैं। इसमें उनका यह तर्क होता था कि इससे साधक कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से ऊँचा उठ जाता था।

इन्हीं में कापालिक लोगों का एक दल था जो सिद्धि प्राप्त करने के लिए और भी उग्र और बीभत्स कार्य करता था। ये कापालिक चिताभस्म अंग पर लगाए, नर-मुण्डमाल गले में पहिने नर-कपाल में मदिरा पानकर मत्त बने निर्द्वन्द्व घूमते, जिसका जो चाहे उठा लेते, जिसे चाहे मार बैठते, इनकी कहीं कोई दाद-फरियाद न थी। प्रायः ये घोर दुराचारी होते थे। गृहस्थ इनके नाम से डरते थे। मारण-मोहन-उच्चाटन का ये पूरा ढोंग रचते थे और सदैव कुत्सित रूप में घूमा करते थे। गुह्य सिद्धियों के लिए ये श्मशान में रहते, मुर्दे की पीठ पर बैठकर मन्त्र जाप करते, और चिताग्नि पर टिक्कड़ सेंक खाते थे।

ऐसा ही उन दिनों शाक्त धर्म था, जिसका पूर्वी बंगाल और आसाम में पूरा जोर था। ये तन्त्र-मन्त्र और गुह्य सिद्धियों के नाम पर मद्य-माँस सेवन करते, नर-बलि तक देते और आदिशक्ति देवी की उपासना रक्त से करते थे। बलि का इनके विधान में प्राधान्य था। ये शाक्तिक जंजाल में लपेटकर वज्रयानियों की भाँति बड़े ही आडम्बर से अपने अनैतिक और कुत्सित कर्मों का प्रतिपादन करते थे।

भागवत धर्म, जिसकी उन्नति गुप्तों के राज्य में हुई थी, अब वैष्णव धर्म बन चुका था। समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय जैसे परम प्रतापी गुप्त सम्राट् अपने को परम भागवत