हुआ।"
"और मैं भी सद्धर्म की शुद्धि के प्रयत्न में कुछ उठा न रखूँगा। अब तुम जाओ पितृव्य। अभी मुझे द्वार पण्डितों की कठिन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना है। ऐसा न हो-द्वार पण्डित मुझे अयोग्य घोषित कर दें और मेरा कुल दूषित हो। जाओ तुम, पिता जी और माता को सान्त्वना देना।"
"जाता हूँ पुत्र, पर शीघ्र ही मिलूंगा।"
सुखदास ने आँखें पोंछी और चल दिया। अब दिवोदास पूर्व द्वार की ओर बढ़े–– रत्नाकर शान्ति पूर्वी द्वार का द्वारपण्डित था। यह महावैयाकरण था। द्वार पर पहुँचकर उसने घण्टघोष किया। घोष सुनकर द्वारपण्डित ने गवाक्ष से झाँककर कहा––"कौन हो?"
"अकिंचन भिक्षु।”
"क्या चाहते हो?"
"प्रवेश।"
"तो यह पूर्वी द्वार है। इसका सम्बन्ध शब्दशास्त्र विद्यालय से है। क्या तूने शब्द शास्त्र का अध्ययन किया है? तू मेरे साथ शास्त्रार्थ करने को उद्यत है?"
"मैं ज्ञानान्वेषी हूँ, मैं धर्म की शरण आया हूँ। मैं धर्मतत्त्व सीखना चाहता हूँ।"
"तो भद्र, तू दूसरे द्वार पर जा। इस द्वार से तेरा प्रवेश नहीं होगा। तब दिवोदास दक्षिण द्वार पर गया। यहाँ का द्वारपण्डित प्रज्ञाकर यति था। क्या तू हेतु-विद्या सीखना चाहता है, क्या तूने अभिधर्म कोष पढ़ा है?"
"नहीं आचार्य, मैं ज्ञानान्वेषी हूँ। मैं धर्म की शरण आया हूँ। मैं धर्मतत्त्व सीखना चाहता हूँ।"
"तो भद्र, तू तीसरे द्वार पर जा। इस द्वार से तेरा प्रवेश नहीं होगा।"
दिवोदास ने तब पच्छिम द्वार पर पहुँचकर घण्टघोष किया। पच्छिम द्वार का द्वारपण्डित ज्ञानश्री मित्र था। घण्टघोष सुनकर उसने कहा—“भद्र, क्या तू सांख्य और वेद पढ़ना चाहता है, क्या तूने निरुक्त और षडंग पाठ किया?"
दिवोदास ने कहा—“मैं ज्ञानान्वेषी हूँ, मैं धर्म की शरण आया हूँ, मैं धर्मतत्त्व सीखना चाहता हूँ।”
"तो भद्र, तू अन्य द्वार पर जा।"
तब दिवोदास उत्तर द्वार पर पहुँचा और घण्टघोष किया। वहाँ का द्वार पण्डित नरोपन्न था। उसने पूछा—“क्या चाहता है भद्र!"
"मैं ज्ञानान्वेषी हूँ। मैं धर्म की शरण आया हूँ। मैं धर्मतत्त्व सीखना चाहता हूँ।"
तब द्वारपण्डित ने पूछा—“क्या तू भिक्षु-पातिभिक्ख का पाठ करता है?"
"करता हूँ भन्ते।"
"क्या तू पूर्वकरण और उपोसथ कर्म करता है?"
"करता हूँ भन्ते।"
"तू अन्तरायिक कर्म नहीं करता है?"
"नहीं करता हूँ भन्ते।"
"तो भद्र, तू भीतर आ और प्रथम केन्द्रीय द्वारपण्डित रत्नवज्र की शरण में जा।"