किए।
दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी का अन्त होते-होते उत्तर भारत में पालों, गहरवारों, चालुक्यों, चन्देलों और चौहानों के अतिरिक्त सोलंकी और परमारों के राज्य स्थापित हो गए थे। ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में भारत की शक्ति 7 दरबारों में विभाजित थी, जो सब स्वतन्त्र थे। पूर्वी भारत में बौद्धों के वज्रयानी सिद्धों का डंका बज रहा था, जिनके केन्द्र नालन्दा, विक्रमशिला, उदन्तपुरी और वज्रासन थे। पाल राजा सिद्धों के भक्त थे और उनके केन्द्र उन्हीं के द्वारा पनप रहे थे।
ईसा के पहिली दो-तीन शताब्दियों में यवन, शक, आभीर, गुर्जर आदि जातियाँ भारत में घुसीं, उस समय बौद्धों की विजय-वैजयन्ती देश में फहरा रही थी। उन्होंने विदेशियों को समाज में समानता के अधिकार दिए। ब्राह्मणों ने प्रथम तो म्लेक्ष कहकर तिरस्कार किया परन्तु पीछे जब इन म्लेक्षों में कनिष्क और मिनिन्दर जैसे श्रद्धालुओं को उन्होंने देखा, जिन्होंने मठ और मन्दिरों में सोने के ढेर लगा दिए थे, तो उन्होंने भी इन आगन्तुकों का स्वागत करना आरम्भ कर दिया। बौद्धों ने उन्हें जहाँ समानता का अधिकार दिया था, वहाँ उन्हें ब्राह्मणों ने अत्यन्त ऊँचा केवल अपने से एक दर्जे नीचा क्षत्रिय का स्थान दिया। उन्हें क्षत्रिय बना दिया और इन विदेशी नवनिर्मित क्षत्रियों के लिए अपना प्राचीन दार्शनिक धर्म छोड़ नया मोटा धर्म निर्माण कर लिया, जिसे समझने और उस पर आचरण करने में उन विदेशियों को कोई दिक्कत नहीं हुई। इन विदेशियों की टोलियाँ सामन्त राजाओं के रूप में संगठित हो गईं और वे ब्राह्मण उनके पुरोहित, धर्मगुरु और राजनैतिक मन्त्री हो गए। इस प्रकार इस नये हिन्दू धर्म में प्रथम पुरोहित, उसके बाद ये सामन्त राजा रहे। राजनीति में प्रथम राजा और उसके बाद ब्राह्मण रहे।
ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी में जब ये सामन्त और उनके पुरोहित सुगठित हो चुके थे, बौद्ध धर्म निस्तेज होने लगा था। सामन्तों के हाथों में देश की सम्पूर्ण सत्ता थी और वे सम्पूर्णतया ब्राह्मणों के अधीन थे।
बौद्ध तो अभी भी दिङ्नाग और धर्मकीर्ति के दर्शनों पर गर्व करते थे। कभी-कभी वे योग-समाधि, तन्त्र-मन्त्र, भूत-प्रेत-डाकिनी के चमत्कार दिखाने लगते थे। सिद्धों के विचित्र जीवन और लोकभाषा की उनकी अटपटी रहस्यपूर्ण कविताएँ, कुछ लोगों को आकर्षित करती थीं। परन्तु सामाजिक जीवन में उनका कुछ भी हाथ न रह गया था। ब्रह्मचर्य और भिक्षु जीवन, जो बौद्धधर्म की सबसे बड़ी सम्पदा थी, अब केवल एक ढोंग रह गया था।
'वज्रयान’ जो बौद्धधर्म का सबसे विकृत रूप था, सातवीं शताब्दी के पूर्व ही देश के पूर्वी भागों में फैल गया था। नालन्दा-विक्रमशिला-उदन्तपुरी-वज्रासन इसके अड्डे थे और इनका प्रसार बिहार से आसाम तक था। ये बौद्धभिक्षु अब तांत्रिक सिद्ध कहलाते थे और वामाचारी होते थे। ऐसे 'चौरासी सिद्ध' प्रसिद्ध हैं, जिनकी अलौकिक शक्तियों और सिद्धियों पर सर्वसाधारण का विश्वास था। इन सिद्धों में जहाँ बड़े-बड़े आचार्य-विद्वान् थे वहाँ थोड़े पढ़े-लिखे नीच जाति के डोम, चमार, चाण्डाल, कहार, दर्जी, शूद्र तथा अन्य ऐसे ही आदमी अधिक होते थे। कुछ तो अनपढ़ होने के कारण और कुछ इसलिए भी कि वे जनता पर अपना प्रभाव कायम रख सकें, वे प्रचलित लोकभाषा में गूढ़ सांकेतिक कविताएँ