पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९९१

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दि हरदीन की बात सुनकर मै तरदुद में पड़ गया और उसे साथ लेकर घर के अन्दर गया, क्योंकि हरदीन बराबर जनाने में आया जाया करता था और उसक लिए किसी तरह का पर्दा न था। जब घर की दूसरी ड्योढी मैंनलाधी तय वहाँ एकान्त देख कर हरदीन ने मुझे रोका और कहा ' जो कुछ मैने आपको खबर दी वह बिल्कुल झूठ थी बहूजी बहुत अच्छी तरह है। मे-तो तुमने ऐसा क्यों किया? ' हरदीन इसलिए कि रघुबरसिह के साथ जाने से आपको रा।। मैं-सो क्यों? हरदीन-इसलिए कि वह आपका धोखा देकर ले जा रहा है और आपकी जान लिया चाहता है। मैं उसके सामने आपको रोक नहीं सकता था, अगर रोकता ता उसे मेरी तरफदारी मालूम हो जाती और मै जान से मारा जाता और फिर आपको इन दुष्टों की चालबाजियों से बचाने वाला कोई न रहता ! यद्यपि मुझे अपनी जान आपसे बढ कर प्यारी नहीं है तथापि आपकी रक्षा करना मेरा कर्तव्य है और यह बात आपके आधीन हे यदि आप मेरा भेद खाल देंगे ता फिर मेरा इस दुनिया में रहना मुश्किल है। मैं-(ताज्जुब के साथ ) तुम यह क्या कह रहे हो ? रघुवर तो हमारा दोस्त है ? हर-इस दोस्ती पर आप भरोसा न करें और इस समय इस मौके को टाल जायें, रात को मै सब बातें आपको अच्छी तरह समझा दूंगा या यदि आपको मेरी बातों पर विश्वास न हो तो जाइए मगर एक तमंचा कमर में छिपा कर लेते जाइए और पश्चिम तरफ कदापि न जाकर पूरब तरफ जाइए-साथ ही हर तरह से होशियार रहिए। इतनी होशियारी करने पर आपको मालूम हो जायगा कि मैं जो कुछ कह रहा हू वह सच है या झूठ ! - हरदीन की आतों ने मुझे चक्कर में डाल दिया। कुछ सोचने के बाद मैने कहा, "शाबाश हरदीन. तुमने बेशक इस समय मेरी जान बचाई, मगर खैर तुम चिन्ता न करो और मुझे इस दुष्ट के साथ जाने दो, अब मैं इसके पजे में न फसूगा और जैसा तुमने कहा है वैसा ही करेगा।' इसके बाद मैं चुपचाप अपने कमरे में चला गया और एक छोटा सा दोनाली तमंचा भर कर अपने कमर में छिपा लेने के वाद बाहर निकला। मुझे देखते ही रघुवरसिह ने पूछा, 'कहिए क्या हाल है? मैंने जवाब दिया, "अब तो होश में आ गई हैं. वैद्यजी को बुला लाने के लिए कह दिया है, तब तक हम लोग भी घूम आवेंगे।' इतना कहकर मैं उस घोर्ड पर सवार हो गया. रघुबरसिह भी अपने घोडे पर सवार हुआ और मेरे साथ चला। शहर के बाहर निकलने के बाद मैंने पूरब तरफ घोडे को घुमाया उसी समय रघुबरसिह ने टोका ओर कहा, उधर नहीं पश्चिम तरफ चलिए इधर का मैदान बहुत अच्छा और सोहावना है। मैं-इधर पूरब तरफ भी तो कुछ बुरा नहीं है, मैं इधर ही चलूगा । रघु-नहीं नहीं आप पश्चिम ही की तरफ चलिए, उधर एक काम और निकलेगा। दारोगा साहब भी इस घोड की चाल देखा चाहते थे, मैंने कह दिया था कि आप अपने घोडे पर सवार होकर जाइये और फलानी जगह ठहरियेगा हम लोंग घूमते हुए उसी तरफ आगे वे जरूर वहाँ गये होंगे और हम लोगों का इन्तजार कर रहे होंगे। मै-ऐसा ही शौक था तो दारोगा साहब भी हमारे यहाँ आ जाते और हम लोगों के साथ चलते ! रघु-खेर अब तो जो हो गया सो हो गया अब उनका ख्याल जरूर करना चाहिए। मैं-मुझे भी पूरव तरफ जाना बहुत जरूरी है क्योंकि एक आदमी से मिलने का वादा कर चुका है। इसी तौर पर मेरे और उसके बीच बहुत देर तक हुज्जत होती रही। मैं पूग्ध तरफ जाना चाहता था और वह पश्चिम की तरफ जाने के लिए जोर देता रहा, नतीजा यह निकला कि न पूरव ही गय और पश्चिम ही गये बल्डिं लौटकर सीधे घर चले आय और,यह बात रघुबरसिह को बहुत ही बुरी मालूम हुई उसने मुझसे मुँह फुला निया और कुढा हुआ अपने घर चला गया। मेरा रहा सहा शक भी जाता रहा और हरदीन की बातों पर मुझे पूरा-पूरा विश्वास हा गया, मगर मेरे दिल में इस बात की उलझन हट्द से ज्यादा पैदा हुई कि हरदीन को इन सब बातों की खबर क्यों कर लग जाती है। आखिर रात के समय जय एकान्त हुआ तय मुझसे हरदीन से इस तरह की बातें होने लगी मै-हरदीन तुम्हारी यात तो ठीक निकली. उसने पश्चिम तरफ ले जाने के लिए बहुत जोर मारा मगर मैंने उसकी एक न सुनी। हरदीन-आपने बहुत अच्छा किया नहीं तो इस समय वडा अन्धेर हो गया हाता । मै-खैर, यह ता बताओ कि यकायक वह मेरी जान का दुश्मन क्यों बन वेठा? वह तो मेरी दोस्ती का दम भरता था ! चन्द्रकान्ता सन्तति भाग २३ ९८५