राजा-(दीवान से) आप दोनों आदमी अकेले आये हैं या कोई साथ आया है? दीवान- हम दोनों के साथ तो केवल दो सवार आए है परन्तु तेजगढ के बहुत से आदमी महाराज के दर्शन की अभिलाषा से हम लोगों के पीछे पीछे आए हैं और चले आ रहे है। इतना सुन कर राजा साहब कुछ सोचने लगे और कुछ देर बाद सिर उठा कर चोपदार की तरफ देखा। चोपदार-बहुत से आदमी महाराज के दर्शन की अभिलाषा से आए हुए है और चल ही आ रहे हैं छोटे दर्जे के आदमी दही, दूध, अन्न इत्यादि लेकर राजा-हमने तो तुम से पहले ही कह दिया था। चोबदार-जी महाराज उस बात का प्रवन्ध पूरा पूरा किया गया है, राजा-तव कोई चिन्ता नहीं, अच्छा गोपीकृष्ण से कह दो कि सभों को जो तेजगढ़ से आये है इनाम बाट दें और सूचना दे दें कि हम कल तुम लोगों को तेजगढ़ में ही देखेगें। इतना सुनते ही आधी घडी के लिये चोवदार बाहर चला गया, जब लौट आया तो महाराज उठ खड़े हुए और वीरसेन तथा दीवान साहब को साथ लिये हुए रावटी के बाहर निकले जहाँ कसे कसाये तीन घोड़ेनजर पडे तथा मशालो की रोशनी भी बखूबी हो रही थी। बीरसेन और दीवान साहब ने देखा कि उनके घोडे जिन्हें वे लश्कर के छोर पर छोड़ आये थे उसी जगह खड़े हैं और उनके पास महाराज का घोडा खड़ा है। महाराज घाडे पर सवार हो गये और उनकी आज्ञा पा चीररोन तथा दीवान साहब भी घोडे पर सवार हुए और महाराज के पीछे पीछे तेजगढ की तरफ चल निकले। वीरसेन को इस बात से बड़ा ही आश्चर्य था कि इतने बड़े राजा होकर हम लोगों के साथ रात के समय अकले तेजगढ की तरफ जा रहे हैं। थोडी दूर जाने बाद पीछे से तीन घोओं के टार्यों की आवाज आई.यात की बात में, मालूम हो गया कि साथ जाने वाला महाराज का चोबदार और दीवान साहब के दोनों सवार आ पहुंचे। बत्तीसवां बयान आज कुसुमकुमारी को आश्चर्य उत्कण्ठा और प्रसन्नता ने इस तरह घेर लिया है कि उसकी आँखो में निदादवी अपना प्रभाव नहीं जमा सकती। आधी रात के लगभग बीत चुकी है मगर यह अभी तक अपने कमरे में बैठी हुई बीरसेन और दीवान साहब के लौट आने की बाट देख रही है और खबर लेने के लिये बार बार लौडियों को बाहर भेजती है। इसी अवस्था में एक लौडी दौडती और हाफती हुई कमरे के अन्दर आई और बोली 'महाराज यहाँ पहुच गए। आपके पास बीरसेन और दीवान साहब को लिये हुए आ रहे है । इतना सुनते ही कुसुमकुमारी घबडाकर उठ खडी हुई और यूंटी से लटकती हुई एक चादर उतार और अच्छी तरह ओढकर दर्वाजे की तरफ लपकी। कमरे से बाहर निकल कर दालान में पहुची ही थी कि महाराज के दर्शन हुए। कुसुम दौडकर महाराज के पैरोंपर गिर पड़ी और उसकी आँखों से ऑन की धारा यह चली। राजा नारायणदत्त को कुसुमकुमारी पहिले भी कई दफे देख चुकी थी और उन्हें अच्छी तरह पहचानती भी थी क्योंकि आवश्यकता पड़ने पर वे कई दफे कुसुमकुमारी के पास आ चुके थे मगर यह हाल रनवीरसिह को मालूम न था। दालान में रोशनी बखूबी हो रही थी जिसके सबब से महाराज के प्रतापी चेहरे का हर एक हिस्सा साफ साफ दिखाई दे रहा था। इस समय महाराज के नेत्र भी अश्रुपूर्ण थे। उन्होंने बड़े प्यार से कुसुमकुमारी को उठाया और उसका सर अपनी छाती से लगा आशीर्वाद के तौर पर कहा, "बेटी। ईश्वर तुझे सदैव प्रसन्न रक्खे और तेरी अभिलाषा पूरी हो।" कुसुम-(अपने कमरे की तरफ इशारा कर के) कमरे में चलिये । राजा-नही, मैं इस कमरे में न जाऊगा बल्कि उस चित्र वाले कमरे में डेरा डालूंगा जिसमें अपने प्यारे लडके रनबीर और उसी के साथ ही साथ अपने एक सच्चे मित्र से मिलने की आशा है। इन शब्दों के सुनने से कुसुम के दिल की मुझाई हुई कली यकायक तरोताजा हो गई और उसे जितनी खुशी हुई उसका हाल स्वय वही जान सकती थी। वह खुशी खुशी महाराज को साथ लिये हुए उस कमरे की तरफ रवाना हुई और बीरसेन बैठने का सामान करने के लिए तेजी के साथ आगे बढ़ गए। इसके थोड़ी ही देर बाद महाराज नारायणदत्त कुसुमकुमारी दीदान साहब और वीरसेन को हम उस चिन्नवाले देवकीनन्दन खत्री समग्र ११०६
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