पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९३०

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जिसकी जमीन सगमूसा के स्याह और चौखूट पत्थरों से मढी हुई थी इस सहन के दाहिने और बाएं कोनों पर दो-तीन आदमी बखूबी बैठ सकते थे। इन्द्रदेव दाहिने तरफ वाले सिंहासन पर जाकर बैठ गया और उसको पावों को बारी बारी स किसी हिसाब से घुमान या उमेठने लगा। उसी समय सिहासन के अन्दर से सरस और मधुर वाजे की आवाज आने लगी और थोड़ी ही दर बाद गान की आवाज भी पैदा हुई। मालूम होता था कि कई नौजवान औरतें बड़ी खूबी के साथ गा रही है ओर कई आदमी पखावज वीन बंशी मजीरा इत्यादि यजाकर उन्हें मदद पहुंचा रह है। यह आवाज धीरे-धीरे बढ़ने और फैलने लगी यहा तक कि उस बारहदरी में साने वाले सभी लागों को जगा दिया अर्थात् मब कोई चौक कर उठ बैठे और ताज्जुब के साथ इधर-उधर दखने लगे। केवल इतने ही से बेचैनी दूर न हुई और सब कोई वारहदरी से बाहर निकलकर सहन में चले आये उस समय इन्द्रदेव न सामन आकर महाराज को सलाम किया। महाराज-यह तो मालूम हो गया कि यह सब तुम्हारी कारीगरी का नतीजा है मगर बताओ ता सही कि यह गाने बजाने की आवाज कहा स आ रही है? इन्द्र-आइय में बताता हूँ। महाराज को जगाने ही के लिए यह तर्कीब की गई थी क्योंकि अब यहाँस रवाना होने का समय हो गया है और विलम्ब न करना चाहिये। इतना कहकर इन्द्रदय सभों का उस सिहासन क पास ले गया जिसमें स गाने की आवाज आ रही थी। और उसका असल भेद समझाकर बोला, 'इसम से मौक-मौके पर हर एक रागिनी पैदा हो सकती है। इस अनूठे गाने बजाने स महाराज बहुत प्रसन्न हुए और इसके बाद सभों को लिए हुए इन्द्रदव के मकान की तरफ रवाना हुए। उस बारहदरी के बगल में ही एक काठरी थी जिसमें सभा को साथ लिए हुए इन्द्रदव चला गया। इस समय इन्द्रदव के पास भी तिलिस्मी खजर था जिससे उसने हल्की रोशनी पैदा की और उसी के सहारे सभी को लिए हुए आगे की तरफ बढा। उस कोठरी में जान के बाद पहिले सभों को एक छोटे से तहखाने में उतरना पडा। वहा सभों ने लाल रंग की एक समाधि दखी जिसके गरे में दरियाफ्त करने पर इन्द्रदव ने कहा कि यह समाधि नहीं है सुरग का दर्वाजा है। इन्द्रदव उस समाधि के पास बैठ गया और कोई ऐसी तसव की कि जिससे वह बीचोबीच में खुल गई और नीचे उतरन के लिए चार-पाच सीढिया दिखाई दी। इददेव के रहे मुताविक सय कोई नीचे उतर गये और इसके बाद सीधी सुरग में चलने लगे। सुरग की हालत और ऊंची-नीचीजमीन सेसाफ-साफमालूम होता था कि वह पहाड काटकर बनाई हुई है और सब लोग ऊंचे की तरफ बढते जा रहे हैं। हम्पर मुसाफिरों कादा-अढाईघडी के लगभग चलना पड़ा और तब इन्द्रदेव ने टहरने के लिए कहा क्योंकि यहा पर सुरग खतम हो चुकी थी और सामने एक बन्द दर्वाजा दिखाई दे रहा था। इन्द्रदेव ने ताली लगाकर ताला खोला औरसभी का साथ लिये हुए उसके अन्दर गया। सभी ने अपने को एक सुन्दर कमरे में पाया ओर जब इस कमर के बाहर हुए तब मालूम हुआ कि सवेरा हा चुका है। यह इन्ददेव का वही मकान है जिसमें वुड्ढे दारोगा के साथ मदद पान की उम्मीद में मायारानी गई थी। इस सुन्दर और सुहावने स्थान का हाल हम पहित लिख चुके है इसलिए अब घुन बयान करने की कोई जरूरत नहीं मालूम होती। इन्ददव सभों को लिए हुए अपने छोटे से बागीचे में गया वहाँ चारो तरफ की सुन्दर छटा दिखाई दे रही थी और खुशबूदार ठण्डी-ठण्डी हवा दिल और दिमाग के साथ दोस्ती का हक अदा कर रही थी। महाराज सुरेन्द्रसिह और बीरन्द्रसिह तथा दोनों कुमारों को यह स्थान बहुत पसन्द आया और बार-बार इसकी तारीफ करने लगे। यद्यपि इस बागीचे में सभों के लायक दर्ज-बदर्जे कुर्सियाँ विछी हुई थीं मगर किसी का जी बैठने को नहीं चाहता था। सव काईधूम-धूमकर यहॉ का आनन्द लेना चाहते थे और ले रहे थे मगर इस बीच में एक ऐसा मामला हो गया जिसन भूतनाथ और दवीसिह दोनों ही को चौका दिया। एक आदमी जल से भरा हुआ चॉदी का घडा और सोने की झारी लेकर आया और सगमर्मर की चौकी पर जो बागीचे में पड़ी हुई थी रखकर लौट चला। इसी आदमी को देख कर भूतनाथ और दीसिह चौके थे क्योंकि यह वही आदमी था जिसे ये दोनों ऐयार नकाबपाशों के मकान में देख चुके थे। इसी आदमी ने नकाबपोशों के सामने एक तस्वीर पेश की थी और कहा था कि कृपानाथ दस मै इसी का दावा भूतनाथ पर करूँगा ।* केवल इतना ही नहीं भूतनाथ ने वहाँ स थोडी दूर पर एक झाडी मेंअपनी स्त्री को फूल तोडते देखा और धीरे से देवीसिह को छेड कर कहा 'यह देखिये मेरी स्त्री भी वहां मौजूद है ताज्जुब नहीं कि आपकी चम्पा भी कहीं घूम रही हो।

  • दखिये बीसवाँ भाग दूसरा बयान।

देवकीनन्दन खत्री समग्र ९२४