पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९२३

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इन्द्र-पशक यही बात है. दखिये अब ने इन्हें फिर चलाकर आपका दिखाता हूँ और इसके बाद दीवार के अन्दर ले चलकर सब भ्रम दूर कर दूंगा। इस दीवार में जिस जगह जमानिया क फिल की तन्धीर बनी थी उसी जगह किल के बुर्ज के ठिकाने पर कई साख नी दिखाय गय थे जिनमें से एक छेद (राख) वास्तव में सच्चा था पर वह केवल इतना ही लग्बा चौडा था कि एक मामूली खजर का कुछ हिस्सा उसके अन्दर जा सम्ता था। इन्द्रजीतसिह ने कमर स तिलिस्मी खजर निकालकर उसके अन्दर डाल दिया और महाराज सुरेन्द्रसिह तथा जीतसिह की तरफ देखकर कहा इस दीवार के अन्दर जो पुर्जे बनेटवबिजली का असर पहुँचन ही से चलने-फिरने या हिलन लगते हैं। इस तिलिस्मीखजर में आप जानते ही है कि पूर दर्ज का रिजली भरी हुई है अस्नु उन पुर्जा के साथ इनका सयोग हाने ही से काम हो जाता है। इतना कहकर इन्द्रजीतसिह धुपचाप खडे हो गये और सभी न बडे गौर से उन तस्वीरों को देखना शुरू किया अल्कि महाराजसुरन्द्रसिह वीरेन्द्रसिह जीतसिंह तजसिह और राजा गोपालसिह ने तो कई तस्वीर के ऊपर हाथ भी रख दिया। इतनरी में दीवार चमकन लगी और इसक बाद तस्वीरों न दही रगत पैदा की जो हम ऊपर के बयान में लिख आय है। महाराज और राजा गोपालसिह वगेरह नजो अपना हाथ तस्वीरों पर रख दिया था वह ज्या का त्यों बना रहा और तस्वीर उनके हाथों के नीच से निकल कर इधर से उधर आन जाने लगी जिसका असर उनक हाथो पर कुछ भी नहीं हाता था इस सबव से सभों को निश्च्य हा गया कि उन तस्वीर का इस दीवार से काई सम्बन्ध नहीं। इस बीच में ॉअर इन्दजीतसिंह ने अपना तिलिरनी खजर दीवार के अन्दर सखींच लिया। उसी समय दीवार का चमकना बन्द हा गया और तस्वीरे जहा की तहा खडी हा गई'अथात् जो जितनी चल चुकी थी उतनी ही चलकर रुक गई। दीवार पर गौर करने से मालूम होता था कि तस्वीर पहिले ढग की नहीं बल्कि दूसरे ढग की बनी हुई है। जीत-यह भी बड़े मजे की बात है लोगों की तस्वीरों के विषय में धाखा देने और ताज्जुब मे डालने के लिए इससे चढपर फाई खेल हो नहीं सकता। तेज-जी हाँ एक दिन में पचासौं तरह की तस्वीरें इस दीवार पर लोगों को दिखा सकत है पता लगना ता दूर रहे गुमान भी नहीं हो सकता कि यह क्या मामला है और ऐसी अनूठी तस्वीरें नित्य क्यों बन जाती हैं। सुरेन्द-बशक यह खल मुझ बहुत अच्छा मालूम हुआ परन्तु अबा नतस्वारों का ठीक अपन ठिकाने पर पहुंचा कर छोड दना चाहिए। बहुत अच्छा कह कर इन्दजीतसिह आग बढ गय और पुन तिलिस्मी खजर उसी सूराख में डाल दिया जिससे उसी तरह दीवार चमकने और तस्वीरे चलन लगी। ताज्जुब के साथ लोग उसका तमाशा देखते रहे। कई घण्टे के बाद जब तस्वीरों की लीला समाप्त हुई और एक विचित्र ढग के खटके की आवाज आई तब इन्द्रजीतसिह ने दीवार के अन्दर स तिलिस्मी खजर निकाल लिया और दीवार का चमकना भी बन्द हो गया। इस तमाशे से छुट्टी पाकर महाराज सुरेन्द्रसिह ने इन्दजीतसिह की तरफ दखा और कहा अब हम लागों को इस दीकर के अन्दर ल चला। इन्द-जा आज्ञा पहिल बाहर स जाँच कर आप उन्दाजा कर लें कि यह दीवार कितनी मोटी है। सुरेन्द्र-इसका अन्दाज हमें मिल चुका है, दूसरे कमरे में जाने के लिए इसी दीवार में जा दर्वाजा है उसकी मोटाई से पता लग जाता है जिस पर हमने गौर किया है। इन्द्र-अच्छा तो अब एक दफे आप पुन उसी कमरे में चले क्योंकि इस दीवार के अन्दर जाने का रास्ता उधर ही से इन्द्रजीतसिह की बात सुनकर महाराज सुरेन्द्रसिह तथा और सब कोई उठ खडे हुए और कुमार के साथ-साथ पुन उसी कमरे में गए जिसने दो चबूतरे पन हुए थे। इस कमरे में तस्वीर वाले कमरे की तरफ जो दीवार थी उसमें एक आलमारी का निशान दिखाई दे रहा था और उसक याचोबीच में लाहे की एक झूटी गडी हुई थी जिसे इन्द्रजीतसिंह न उमेठना शुरू किया। तीत-पैंतीस दफे उमेठ कर अलग हो गए और दूर खडे होकर उस निशान की तरफ दखने लगे। थोड़ी देर बाद वह आलमारी हिलती हुई मालूम पडो और फिर यकायक उसके दोनों पल्ले दर्वाजे की तरह खुल गए। साथ ही उसके अन्दर से दो औरतें निकलती हुई दिखाई पड़ी जिनमें एक ता मूतनाथ की स्त्री थी और दूसरी देवीसिह की स्त्री चन्या। दोनों औरतों पर निगाह पडत ही भूतनाथ और देवीसिह चमक उठे और उनके ताज्जुब का काई हद न रहा साथ ही इसके दानों एयारों चन्द्रकान्ता सन्तति भाग २१ ९१५