पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९०९

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ऐयार बनाते हैं। इतना कह सुरेन्दसिह उठ बैठे और अपने सिरहाने के नीचे से अपना खास बेशकीमत खजर निकालकर भूतनाथ की तरफ बढाया। भूतनाथ खडा हो गया और झुककर सलाम करने के बाद खजर ले लिया और इसके बाद जीतसिह गोपालसिह और इन्द्रदव को भी सलाम किया। जीतसिह ने अपना खास ऐयारी का बटुआ भूतनाथ को दिया। गोपालसिह ने वह तिलिस्मी तमंचा जिससे आखिरी वक्त मायारानी ने काम लिया था और जो इस समय उनके पास था गाली बनान की तीव सहित भूतनाथ को दिया और इन्द्रदेव ने यह कहकर उसे गले से लगा लिया कि मुझ फकीर के पास इमसे बढकर और कोई चीज नहीं है कि मैं फिर तुम्हें अपना भाई बनाकर ईश्वर से प्रार्थना करुं कि अव इस नाते में किसी तरह का फर्क न पडने पावे । इसके बाद दोनों आदमी अपनी-अपनी जगह बैठ गये और भूतनाथ ने हाथ जाडकर सुरेन्दसिह से कहा 'आज मैं समझता हूं कि मुझ सा खुशनशीब इस दुनिया में दूसरा कोई भी नहीं है। बदनसीबी के चक्कर में पडकर मै वर्षों परेशान रहा तरह-तरह की तकलीफें उठाई पहाड-पहाड और जगल जगल मारा फिरा, साथ ही इसके पैदा भी बहुत किया . और बिगाडा भी बहुत परन्तु सच्चा सुख नाम मात्र के लिए एक दिन भी न मिला और न किसी को मुह दिखाने की अभिलाषा ही रह गई। अन्त में न मालूम किस जन्म का पुण्य सहायक हुआ जिसने मेरे रास्ते को बदल दिया और जिसकी बदौलत आज मै इस दर्जे को पहुचा। अब मुझे किसी बात की परवाह नहीं रही। आज तक जो मुझसे दुश्मनी रखते थ कल से वे मेरी खुशामद करेंगे क्योंकि दुनिया का कायदा ही ऐसा है। महाराज इस बात का भी निश्चय रक्खे कि उस पीतल की सन्दूकडी से महाराज या महाराज के पक्षपातियों का कुछ भी सबंध नहीं है, जो नकली बलभद्रसिह की गठरी में से निकली है और जिसके व्यान ही से मेरे रोंगटे खडे होते है। मै उस भेद को भी महाराज से छिपाना नहीं चाहता हा यह अच्छा है कि सर्वसाधारण में वह भेद फैलने न पावे। मैंने उसका कुछ हाल देवीसिह से कह दिया है आशा है कि वे महाराज से जरुर अर्ज करेंगे। जीत-खैर उसके लिए तुम चिन्ता न करो, जैसा होगा देखा जायगा। अब अपन डेरे पर जाकर आराम करो, महाराज भी आज रातभर जागते ही रहे है। गोपाल-जी हा अब तो नाम मात्र को रात बच गई होगी। इतना कहकर राजा गोपालसिह उठ खडे हुए और सभों को साथ लिए हुए कमरे के बाहर चले गए। तीसरा बयान इस समय रात बहुत बाकी थी और सुबह की सुफेदी आसमान पर फैला ही चाहती थी। और लोग तो अपने-अपने ठिकाने चले गए और दोनों नकाबपोशों ने भी अपने घर का रास्ता लिया, मगर भूतनाथ सीधे देवीसिह के डेरे पर चला गया। दरवाजे ही पर पहरवाले की जुबानी मालूम हुआ कि वे सोए है परन्तु देवीसिह को न मालूम किस तरह भूतनाथ के आने की आहट मिल गई (शायद जागते हों) अस्तु वे तुरन्त बाहर निकल आए और भूतनाथ का हाथ पकड के कमरे के अन्दर ले गए। इस समय वहा केवल एक शमादान की मद्धिम रोशनी हो रही थी, दोनों आदमी फर्श पर बैठ गए और यों बातचीत होने लगी- देवी-कहो इस समय तुम्हारा आना कैसे हुआ? क्या कोई नई बात हुई ? भूत-बेशक नई बात हुई और वह इतनी खुशी की हुई है जिसके योग्य मैं नहीं था। देवी-(ताज्जुब से ) वह क्या ? भूत आज महाराज ने मुझे अपना ऐयार बना लिया और इस इज्जत के लिए मुझे यह खजर दिया है। इतना कहकर मूतनाथ ने महाराज का दिया हुआ खजर और जीतसिह तथा गोपालसिह का दिया हुआ बटुआ और तमचा देवीसिह को दिखाया और कहा इसी बात की मुबारकबाद देने के लिए मैं आया हू कि तुम्हारा एक नालायक दोस्त इस दरजे को पहुच गया। देवी-(प्रसन्न होकर और भूतनाथ को गले से लगाकर ) बेशक यह बडी खुशी की बात है ऐसी अवस्था में तुम्हें अपने पुराने मालिक रणधीरसिह को भी सलाम करने के लिए जाना चाहिए। भूत-जरूर जाऊगा। देवी यह कार्रवाई कब हुई? चन्द्रकान्ता सन्तति भाग २१