पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/८९७

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ext 9 भूत-नि सन्देह आप उचित कहते है। देवी-भूतनाथ तुम्हें यह सुनकर प्रसन्न होना चाहिए के दो ही तीन दिन में कुवर इन्द्रजीतसिह और आनन्दसिह आने वाले है। भूत-( ताज्जुब से ) यह कैसे मालूम हुआ देवी-उनकी चीठी आई है। भूत-कोन लाया है? देवी-( नकाबपोशों की तरफ बताकर ) ये ही लाये हैं। भूत-क्या मैं उस चीठी को देख सकता हूँ? देवी-अवश्य। इतना कहकर देवीसिह ने कुँवर इन्द्रजीतसिह की चीठी भूतनाथ के हाथ में दे दी और भूतनाथ ने प्रसन्नता के साथ पढकर कहा अब सब बखडा ते हो जायगा । जीत ( महाराज का इशारा पाकर भूतनाथ से ) भूतनाथ तुम्हें महाराज की तरफ से किसी तरह का खौफ न करना चाहिये, क्योंकि महाराज आज्ञा दे चुके हैं कि तुम्हारे ऐबों पर ध्यान न देंगे और देवीसिह जिन्हें महाराज अपना अग समझते हैं, तुम्हें अपने भाई के बराबर मानते है। अच्छा यह बताओ कि तुम्हारे लौट आने में इतना विलम्ब क्यों हुआ क्योंकि जिन दो नकाबपोशों को तुम गिरफ्तार करके ले गए थे उन्हें अपने घर लौटे दो दिन हो गए । भूतनाथ कुछ जवाब देना ही चाहता था कि वे दोनों नकाबपोश भी हाजिर हुए जिन्हें बुलाने के लिए चोबदार गया था। जब वे दोनों समों को सलाम करके आज्ञानुसार बैठ गये तब भूतनाथ ने जवाब दिया - भूत-(दोनों नकाबपोशों की तरफ बता कर) जहा तक मै ख्याल करता हूये दोनों वे ही है जिन्हें मैं गिरफ्तार करके ले गया था। (नकाबपोशों से) क्यों साहबों ? एक नकाबपोश-ठीक है मगर हम लोगों को ले जाकर तुमने क्या किया सो महाराज को मालूम नहीं है। भूत-हम लोग एक साथ ही अपने अपने स्थान की तरफ रवाना हुए थे ये दोनों तो बेखटके अपने घर पर पहुच गए होंगे मगर मैं एक विचित्र तमाशे के फेर में पड़ गया था। जीत-वह क्या? भूत-(कुछ सकोच के साथ ) क्या कहू कहते शर्म मालूम होती है ? देवी-ऐयारों को किसी घटना के कहने में शर्म न होनी चाहिये चाहे उन्हें अपनी दुर्गति का हाल ही क्यों न कहना पड़े, और यहा कोई गैर शख्स भी बैठा हुआ नहीं है ये नकाबपोश साहब भी अपने ही है तुम खुद देख चुके हो कि कुअर इन्द्रजीतसिह ने इनके बारे में क्या लिखा है। भूत-ठीक है मगर खैर जो होगा देखा जायगा, मैं बयान करता हू सुनिये । इन नकाबपोशों को विदा करने बाद जिस समय मैं वहा से रवाना हुआ रात आधी से कुछ ज्यादा जा चुकी थी। जब मै पिपलिया वाले जगल में पहुचा जो यहा से दो-ढाईकोस होगा तो गाने की मधुर आवाज मेरे कानों में पडी और मै ताज्जुब से चारों तरफ गौर करने लगा। मालूम हुआ कि दाहिनी तरफ से आवाज आ रही है अस्तु मै रास्ता छोड धीरे-धीरे दाहिनी तरफ चला और गौर से उस आवाज को सुनने लगा। जैसे-जैसे आगे बढता था आवाज साफ होती जाती थी और यह जान पड़ता था कि मै इस आवाज से अपरिचित नहीं बल्कि कई दफे सुन चुका हू, अस्तु उत्कण्ठा के साथ कदम बढ़ा कर चलने लगा। कुछ और आगे जाने के बाद मालूम हुआ कि दो औरतें मिल कर बारी-बारी से गा रही है जिनमें से एक की आवाज पहिचानी हुई है।जब उस ठिकाने पहुच गया जहाँ से आवाज आ रही थी तो देखा कि एक बडे और पुराने पेड के ऊपर कई औरतें चढ़ी हुई हैं जिनमें दो औरतें गा रही हैं। वहा बहुत अन्धकार हो रहा था इसलिए इस बात का पता नहीं लग सकता था कि वे औरतें कौन कैसी किस रग-ढग की हैं तथा उनका पहिरावा कैसा है। मैं भले-बुरे का कुछ ख्याल न करके उस पेड़ के नीचे चला गया और खजर अपने हाथ में लेकर रोशनी के लिए उसका कब्जा दबाया। उसकी तेज रोशनी से सब तरफ उजाला हो गया और पेड़ पर चढीहुईवे औरतें साफ दिखाई देने लगी। मै उनकोपहिचानने की कोशिश कर ही रहा था कि यकायक उस पेड के चारों तरफ चक्र की तरह आग भभक उठी और तुरन्त ही बुझ गई। जैसे किसी ने बारुद की तकीर में आग दी हो और वह भक से उड जाने बाद केवल धूआ ही घूओ रह जाय ठीक वैसा ही मालूम हुआ। आग बुझ जाने के साथ ही ऐसा जहरीला और कडुआ धूआ फैला कि मेरी तबीयत घबडा गई और मैं समझ गया कि इसमें बेहोशी का असर जरूर है और मेरे साथ ऐयारी की गई। बहुत कोशिश की मगर मैं अपने को सम्हाल न सका और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग २० ८९