पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/८७४

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Je देवी-(स्त्री से ) तो तू भूतनाथ की स्त्री नहीं है ? स्त्री-जी नहीं। देवी-आखिर इसका फैसला क्योंकर हो? स्त्री-आप लोग जरा तकलीफ करके मेरे घर तक चलें, वहाँ मेरे बच्चों को देखने और मेरे मालिक से बातचीत करने पर आपको मालूम हो जायगा कि मेरा कहना सच है या झूठ। देवी-( औरत की बात पसन्द करके ) तुम्हारा घर यहा से कितनी दूर है ? स्त्री-(हाथ का इशारा करके) इसी तरफ है यहा से थोड़ी ही दूर पर। इन घने पेड़ों के पार होते ही आपको वह झोपडी दिखाई देगी जिसमें आज कल हम लोग रहते है। देवी-क्या तुम झोपड़ी में रहती हौ ? मगर तुम्हारी सूरत शक्ल किसी झोपडी में रहने योग्य नहीं है। स्त्री-जी मेरे दो लडके बीमार हैं उनकी तन्दुरुस्ती का ख्याल करके हवा-पानी बदलने की नीयत सेआज-कल हम लोग यहा आ टिके है। (हाथ जोडकर) आप कृपा कर शीघ्र उठिये और मेरे डेरे पर चलकर इस बखेडे को तै कीजिये, विलम्ब होने से मैं मुफ्त में सताई जाऊगी। देवी-( भूतनाथ से ) क्या हर्ज है अगर इसके डेर पर चलकर शक मिटा लिया जाय ? भूत-जो कुछ आपकी राय हो में करने को तैयार हू, मगर यह तो मुझे अजीब ढग से अन्धा बना रही है। देवी-अच्छा फिर उठो, अब देर करना उचित नहीं । उस औरत की अनूठी बातचीत ने इन दोनों को इस बात पर मजबूर किया कि उसके साथ-साथ डेरे तक या जहा वह ले जाय चुपचाप चले जाय और देखें कि जो कुछ वह कहती है कहा तक सच है और आखिर ऐसा ही हुआ। इशारा पाते ही औरत उठ खडी हुई। देवीसिह और भूतनाथ उसके पीछे-पीछे रवाना हुए। उस औरत को घोड़े पर सवार होने की आज्ञा न मिली इसलिए वह घोडे की लगाम थामे हुएधीरे-धीरे इन दोनों के साथ चली। लगभग आध कोस के गए होंगे कि दूर से एक छोटा सा कच्चा मकान दिखाई पड़ा जिसे एक तौर पर झोपडी कहना उचित है। इस मकान के ऊपर खपर्ड की जगह केवल पत्ते से ही छाया हुआ था। जब लोग झोपड़ी के दर्वाजे पर पहुचे तब उस औरत ने अपने घोडे को खूटे के साथ बाधकर थोड़ी सी घास उसके आगे डाल दी जो उस जगह एक पेड के नीचे पड़ी हुई थी और जिसे देखने से मालूम होता था कि रोज इसी जगह घोडा बधा करता है। इसके बाद उसने देवीसिह और भूतनाथ से कहा आप लोग जरा सा इसी जगह ठहर जाय मै अन्दर जाकर आप लोगों के लिए चारपाई ले आती हू और अपने मालिक तथा लडकों को भी बुला लाती है।' देवीसिह और भूतनाथ ने इस बात को कबूल किया और कहा क्या हर्ज है जाओ मगर जल्दी आना क्योंकि हम लोग ज्यादे देर तक यहा ठहर नहीं सकते। वह औरत मकान के अन्दर चली गई और वे दोनों देर तक बाहर खडे रहकर उसका इन्तजार करते रहे यहा तक की धण्टे भर से ज्यादे बीत गया और वह औरत मकान के बाहर न निकली। आखिर भूतनाथ ने पुकारना और चिल्लाना शुरू किया मगर इसका भी कोई नतीजा न निकला अर्थात् किसी ने भी उसे किसी तरह का जवाब न दिया। तब लाचार होकर वे दोनों मकान के अन्दर घुस गए मगर फिर भी किसी आदमी को यहाँ तक कि उस औरत की भी सूरत दिखाईन पडी। उस छोटी झोपड़ी में किसी को ढूढना या पता लगाना कोन कठिन था अस्तु वित्ता-बित्ता भर जमीन देख डाला मगर सिवाय एक सुरग के और कुछ भी दिखाई न पडा। न तो मकान में किसी तरह का असबाब ही था और नचारपाई बिछावन कपडा-लत्ता या अन्न और बरतन इत्यादि ही दिखाई पडा अस्तु लाचार होकर भूतनाथ ने कहा, बस-बस, हम लोगों को उल्लू बना कर वह इसी सुरग की राह निकल गई ! बेवकूफ बना कर इस तरह उस औरत के निकल जाने से दोनों ऐयारों को बड़ा ही अफसोस हुआ। भूतनाथ ने सुरग के अन्दर घुस कर उस औरत को दूढने का इरादा किया। पहिले तो इस बात काख्याल हुआ कि कहीं उस सुरंग में दो-चार आदमी घुस कर बैठे न हों जो हम लोगों पर बेमौके वार करें, मगर जब अपने तिलिस्मी खजर का ध्यान आया तो यह खयाल जाता रहा और बेफिक्री के साथ हाथ में तिलिस्मी खजर लिये हुए भूतनाथ उस सुरग के अन्दर घुसा पीछे-पीछे देवीसिह ने भी उसके अन्दर पैर रक्खा। वह सुरग लगभग पाँच सौ कदम के लम्बी होगी। उसका दूसरा सिरा धने जगल में पेड़ों के झुरमुट के अन्दर निकला था। देवीसिह और भूतनाथ भी उसी सुरग के अन्दर वहा तक चले गये और इन्हें विश्वास हो गया कि अब उस औरत का पता किसी तरह नहीं लग सकता। देवकीनन्दन खत्री समग्र