पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/८४

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whe कर बोले "वस अब सिवाय आपके बदनामी का दीका मरे सर से छुआन बाला और काई भी नहीं है। साधु ने रनबीर को जमीन पर से उटाकर गले से लगाया और कहा, घबड़ाआ मत, आज दोपहर बाद तुम्हें अपन साथ लेकर मे रवाना हो जाऊँगा। साधु महाशय इतना कह कर उठ खड़े हुए और रनवीर बैठे रहने के लिय ताकीद करके जगल में चले गए। थोड़ी देर बाद एक बूटी हाथ में लिय हुए आ पहुचे जिसका दाइ का हिस्सा ताड कर रनवीर का यान के लिये दिया और पत्तियों मलकर उसका पानी रनवीर के जख्मों में लगान को बाद वाले अव तुम्हे जख्म की तकलीफ बिल्कुल न रहेगी और चलने तथा लडने की ताकत भी आ जायगी । घट भर याद कुटी के अन्दर से दा चार फल लाकर रनवीर को खिलाया और पानी पिलाया। दोपहर हाल होत उन्हें अपना साथ चलने के लिये कहा और वह कागज का मुटटा जा रनवीर को पढ़ने के लिए दिया था जगल में रनवीर के सामने ही एक पड के नीचे गाड दिया। छब्बीसवां बयान रनवीर का सायलिए हुए साधु महाशय धीर धार परिवमा दरफ रवाना हुए और सूर्य अस्त होत हात तक जगल ही जगल बरावर एल गय । यद्यपि धूप की तेजी दुखदाई थी परन्तु धन पेडों की बदौलत दोनों मुसाफिरों को कोई कष्ट न हुआ। इस बीच में उन दाना में विशेष गतवीत हुादा चार या मतलब की हुई जिन्हें हम नीच लिखते हैं साधु-तुमने समझा हागा जिसवत का मार कर और मलेसिह को थैकाम करके हा निश्चिन्त हा गए मगर नहीं तुम्हें उस भारी दुश्मा की कुछ भी खबर नहीं है जिसकी बदौलत तुम्हारे पिता न दुख मागा और जो तुमको भी नुख की नींद साने न देगा। रनवीर-उस कागज के पढ़ने से मुझे बहुत कुछ हाल मालूम हुआ है। आशा है कि उस दुश्मन का पता आप मुझे देंगे और मैं जिस तरह हा रकगा उससे बदला ले सकूगा। साधु-शक ऐसा ही जाना चाहिये। तुम वीर-पुन हो और इसमें कोई सन्देश नहीं कि तुम स्वय बहादुर हो इसलिये दुश्मन से अपना बदला अवश्य लोगे। में एक आदमी से तुम्हारी मुलाकात कराता हूँ जो समय पर तुम्हारी सहायता करेगा। ताज्जुब नहीं कि इस काम को करते करते बहुत से दीन दुखियाओं का मला भी तुम्हारे हाथ से हो जाय। तुम्हें इस समय तुमुभ का ध्यान भुला देना चाहिये क्योंकि उस कागज के पढने से तुम समझ ही गए होगा कि मुसुम की भलाई नौ इस काम के साथ ही साथ होगी। रनवीर-देशक एसा ही है। इसके अतिरिक्त और जो कुछ दाल हुइ उनके लिखने की हम कोई आवश्यकता नहीं समझते। सूर्य अन्त हाने पर ये दानो यात्री उस घने जगत से याहर हुए और एक पहाड़ी के नीचे पहुचे अब साधु महाशय उस पहाडी के नीव नीचे दक्खिन की तरफ जान लगे। लगनग आध कास के जाने के बाद एक छोटीसी वावली और उरम्के किनार एक पारदरी दिखाई पडोजिसक पास पहुधन पर साधु महाशय न रनवीर की तरफ देखा और कहा दो तीन घण्टे यहाँ आराम करना उचित है, इसके बाद पहाड़ी पर चढ़ेंगे। इसके जवाब में रनवीरसिह ने कहा, 'पहुत अच्छा। पहर भर से ज्यादे रात जा चुकी है. चन्द्रमा के दर्शन की कोई आशा नहीं है परन्तु साधु महाशव को इसकी कोई परवाह नहीं वह रनवीरसिह को साथ ले पहाजी के ऊपर चढ़ने लगे। इस समय रनबीरसिह के दिल म तरह तरह की बातें पैदा होती थीं परन्तु न जाने क्यों उन्हें साधु पर इतना विश्वास हो गया था कि उसकी आज्ञा के विरुद्धकुछ भी करने का जरा साहस नहीं कर सकते थे। आधी रात जाने के पहिले ही दोनों मुसाफिर उस पहाडी के ऊपर जा पहुचे। इस पहाडी के ऊपर से चारो तरफ निगाह दौड़ाकर देखना और विचत्र घटा का आनन्द लेना इस समय कठिन है क्योंकि रात का समय तिस पर चन्ददेव के दर्शन अभी तक नहीं हुए हॉ इतना मालूम हुआ कि पश्चिम तरफ मैदान है। रनवीरसिह को साथ लिये हुए साधु महाशय उसो मैदान की तरफ रवाना हुए और लगभग आध कोस के जाकर रुके क्योंकि आग की जमीन डालवी यी ओर उन दोनो को नीच की तरफ उतरना था। रनवीरसिह को चलने में परिश्रम हुआ होगा और थक गये होंगे यह सोच कर साधु महाशय रनवीरसिह को एक चट्टान पर बैटने का इशारा करके आपभी उसी पर बैठ गए मगर थोड़ी देर दम लेकर फिर उठ खडे हुए और पाई तरफ झुकते हुए ढालयी पहाड़ी उतरने लगे। लगमग सौ कदम के जाकर एक गुफा के मुह पर साघु खड़े हुए और कुछ ऊँची आवाज में गोले, “महादेव, इसके जवाब में देवकीनन्दन खत्री समग्र १०९२.