पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/८३९

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art रात भर मुझे नींद न आई और सुबह को जैसे ही मैं विछावन पर से उठी तो सुना कि मनोरमा आ गई है। कमर के बाहर निकलकर सहन में गई जहा मनारमा एक कुर्सी पर बैठी नानूस बात कर रही थी। दो लोडिया उसके पीछे खड़ी यी और उसके बगल मंदो-तीन वाली कुर्सिया भी पड़ी हुई थी। मनोरना ने अपने पास एक कुर्सी बैंच कर मुझे बड़े प्यार से उस पर बैठने के लिए कहा और जब मैं बैठ गई तो बातें होने लगी। मनोरमा-(मुझ स) बेटीतू जानती है कि यह (नानू की तरप बताकर ) आदमी हमारा कितना बड़ा खैरखाह है। में माँ, शायद यह तुम्हारा खैरखाह होगा मगर मरा तो पूरा दुश्मन है। मनोरमा ( चौककर ) क्यों क्यों सो क्यों ? मै-सैकडों मुसीबतें झेलकर ता में तुम्हारे पास पहुची और तुमन भी मुझे अपनी लडकी बनाकर मर साथ जो सलूक किया वह प्राय यहा के रहने वाले सभी काई जानत होंगे, मगर यह नान नहीं चाहता कि मैं अब भी किमी तरह सुख की नींद सो सकू। कल शाम को जब में जाग में ला रही थी तो यह मेरे पास आया और एक पुर्जा मेरे हाथ में देकर बोला कि इसे पढ और होशियार हो जा सगर खबरदार मस नाम न लीजिये। नानू (मेरी वात काटकर फ्रोध स ) क्यों मुझ पर तूफान बाध रही हो । क्या यह बात मैन तुमस कही थी ! मै-(रग बदलकर ) येशक तने पुर्जा देकर यह बात कही थी और मुझे भाग जाने के लिए भी ताकीद की! आँखें क्यों दिखाता है ! जो बातें तून मनो-(बात काटकर) अच्छा अच्छा तु क्राध भरकर जा कुछ होगा मसमझ लूंगी, त् जो कहती थी उस पूराकर । ( नानू से ) बस चुपचाप बैठ रहो, जब यह अपनी बात पूरी कर ले तप जो कुछ कहना हो कहना। मैं-मैने उस युरोका जाल कर पढा जो उसमें लिखा हुआ पाया - जिसे तू अपनी मा समझती है वह मनोरमा है, तुझे अपना नाम निकालने के लिए यहा ले आई है काम निकल जाने पर तुझे जान से मार डालेगी अस्तु जहा तक जल्द हो सके निकल भागने की फिक्र कर' । इत्यादि और भी कई बातें उसमें लिखी हुई थी, जिन्हें पढकर मै चौकी और वात बनाने के तौर पर नानू ते बोली, 'आपन बडी मेहरबानी की जा मुझ हाशियार कर दिया अब भागने में भी आप ही भेरी मदद करेंगे तो जान बची। इसके जवाब में इसने खुश होकर कहा कि तुम्हें मुझसे ज्यादेबात-चोतन करनी चाहिए कहाँ ऐसा न हो कि लोगों को मुझ पर शक हो जाया नै भागने में भी तुम्हारी मदद करुगा मगर इस बात को बहुत छिपाय रखना क्योंकि यहा बरदेदू नान का आदमी तुम्हारा दुश्मन है। इत्यादि- गान-( बात काटकर ) हा बेशक यह बात मन तुमसे जरुर कही थी कि मैं-धीरे-धीरे तुन सभी बात कबूल करोगे मगर ताज्जुब यह है कि मना करने पर भी तुम टोके बिना नहीं रहते। मनोरमा (क्राध से ) क्या तुम चुप न रहागे ? इसका जवाब नानू ने कुछ न दिया ओर चुप हो रहा। इसके बाद मनारमा की इच्छानुसार मैने यों कहना शुरु किया मैं-मैने इस पुर्जे को यढ र टुकड़े-टुकड़े कर डाला और फेंक दिया। इसके बाद नानू भी चला गया और मैं भी यहा आकर छत के ऊपर चढ गई और छिप कर उसी तरफ देखन लगी जहा उस पुर्जे को फाड कर फेंक आई थी। धोडी देर बाद पुन इसको (नानू को ) उसी जगह पहुंचकर कागज के उन टुकड़ों को चुनते और बटोरते देखा। जब यह उन टुकड़ों को बटोर कर कमर में रख चुका और इस मकान की तरफ आया तो मैं भी तुरन्त छत पर से उतरकर इसके पास चली आई और बोली 'कहिए अब मुझे कब यहा से बाहर कीजिएगा? इसके जवाब में इसने कहा कि मैं रात को एकान्त ने तुम्हारे पास आऊगा तो बातें करुगा'। इतना कहकर यह चला गया और पुन मै बाग में टहलने लगीं। जय अन्धकार हुआ तो मै घूमती हुई (हाथ का इशारा करके) उस झाड़ी की तरफ से निकली और किसी के बात की आहट पा पैर दवाती हुई आगे बढी यहा तक कि थाड़ी ही दूर पर दो आदमियों क यात करने की आवाज साफ-साफ मुनाई देने लगी। मैने आवाज से नानू को तो पहिचान लिया मगर दूसरे को पहिचान न सकी कि वह कौन था हा पीछे मालूम हुआ कि वह बरदेवू था। मनो-अच्छा खैर यह बता कि इन दोनो में क्या बातें हो रही थीं। मैं-सब बातें मैं सुन न सकी. हा जो कुछ सुनने और समझने में आया सो कहती हूँ। इस नानू ने दूसरे से कहा कि नहीं-नही अब में अपना इरादा पक्का कर चुका हूँ और उस छोकरी को भी मेरी बातों पर पूरा विश्वास हो चुका निसन्देह उसे ले जाकर मैं बहुत रुपये उसके बदले में पा सकूगा अगर तुम इस काम में मरी मदद करोगे तो मैं उसमें से 18 चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १९ ८३१