पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७६४

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सभों का राजा साहब का हुक्म सुनाया और इसके बाद अपने विछावन पर जाकर सोचने लगा-- गोपालसिह की बातें कुछ समझ में नहीं आतीं और न उनको इरादे का ही पता लगता है 'लक्ष्मीदेवी और कमतिनी वगैरह को न मालूम क्यों छोड आये और जब उन्होंने इनके साथ आने से इनकार किया ता इन्होंन मान क्यों लिया? क्या अब लक्ष्मीदेवी का और इनका साथ न होगा? अगर ये अकेले जमानिया गए तो क्या केवल इन्हीं के साथ वह सलूक किया जायगा जो हम साच चुक है ? मगर कमलिनी वगैरह का बचे रह जाना तो अच्छा नहीं होगा। लेकिन फिर क्या किया जाय लाचारी है हा एक यात का इन्तजाम तो कुछ किया ही नहीं गया और न पहिले इस बात का विचार ही हुआ। जमानिया पहुचने पर जब दोवान साहब की जुबानी गोपालसिह को यह मालूम होगा कि रामदीन न चार आदमियों को खास बाग के अन्दर पहुचाया है तब यह क्या साचेंगे और पूछने पर मुझसे क्या जवाब पायेंगे ? कुछ भी नहीं। इस बात का जवाब देना मरे लिए कठिन हो जायगा। तय फिर खास बाग पहुचने के पहिले ही मेरा भाग जाना उचित होगा? आफ बडी भूल हो गई यह बात पहिले न सोच ली । दीवान साहब का बिना कुछ कहे ही उन सभों को खास बाग में पहुचा देना मुनासिब होता। मगर ऐसा करने पर भी तो काम नहीं चलता। अगर दीवान साहय को नहीं तो खास बाग क पहरेदारों को तो मालूम ही हो जाता कि रामदीन चार आदमियों को बाग के अन्दर छोड गया है और उन्हीं की जुबानी यह वात राजा साहब को भी मालूम हो जाती। यात एक ही थी सबसे अच्छा तो तब होता जब लोग किसी गुप्त राह से वाग के अन्दर जाते मगर यह असम्भव था क्योंकि जरुर भीतर से सभी रास्ते गापालसिह ने बन्द कर रक्खे होंगे। तब क्या करना चाहिये? हा भाग ही जाना सबसे अच्छा होगा। मगर मायारानी को भी तो इस बात की खबर कर देनी चाहिए। अच्छा तव जमानिया होकर और मायारानी को कह सुन कर भागना चाहिए। नहीं अब तो यह भी नहीं हो सकता क्योंकि मायारानी फौजी सिपाहियों को वाग के अन्दर करकं,साथियों समेत कहीं छिप गई होगी और मै उस भाग के गुप्त भेदों को न जानने के कारण इस लायक नहीं है कि मायारानी को खाज निकालू और अपने दिल का हाल उनसे कहूया उन्हीं के साथ आप भी छिप रहू। आफ वह तो मजे में अपने ठिकाने पहुंच गई मगर मुझे आफत में डाल मई। खैर अभी तो नहीं मगर गोपालसिह को जमानिया की हद्द में पहुचा कर जरुर भाग जाना पड़ेगा। फिर जब मायारानी उन्हें मार कर अपना दखल जमा लेंगी तब फिर उनसे मुलाकात होती रहेगी। इन्हीं विचारों में लीला (नकली रामदीन) ने तमाम रात आखों में विता दी। सवेरा होने के पहिले ही वहजरूरीकामों से छुट्टी पाने लिए घोर्ड पर सवार होकर दूर चली गई और घण्ट भर बाद लौट आई। सातवां बयान दिन अनुमान से दो घडी चढ चुका होगा जब राजा गोपालसिह दो आदमियों को साथ लिए हुए धीरे धीरे आते दिखाई पड़े। वे दोनों भैरासिह और इन्द्रदेव थे और पैदल थे। जब तीनों उस ठिकान पहुच गये जहा राजा साहब के रथ और सवार लोग थे तब राजा साहब ने अपना घोडा छोड दिया और उस पर भैरोमिह को सवार होने के लिए कहा तथा और सवारों को भी घोडों पर सवार हो जान के लिए इशारा किया, इसके बाद स्वय एक रथ पर सवार हो गये और इन्द्रदेव का भी उसी पर अपने साथ बैठा लिया बाकी तीन रथ खाली ही रह गये। सवारी धीरे धीरे जमानिया की तरफ रवाना हुई और फौजी सवार खूबसूरती के साथ राजा साहय को घेरे हुए धीरे धीरे जैसा कि रथ जा रहाथा जाने लगे। भैरोसिह अपना धाडा बढ़ा कर नकली रामदीन के पास चला गया जो उसी पचकल्यान घोड़ी पर सवार था और उसके साथ जाने लगा। यह बात लीला को बहुत बुरी मालूम हुई क्योंकि वह राजा वीरेन्द्रसिह के ऐयारों से बहुत डरती थी। थोडी देर तक चुप रहने के सद वह बोली- लीला-( भैरो से ) आपने राजा साहब का साथ क्यों छोड दिया? भैरो-(हस कर ) तुम्हारा साथ करने के लिये, क्योंकि मैं अपने दोस्त रामदीन को अकेला नहीं छोड़ सकता। लीला-और जब मुझे राजा साहब ने अकेले जमानिया भेजा था तव आप कहा डूब गये थे? भैरो-तब भी मैं तुम्हारे साथ था मगर तुम्हारी नजरों से छिपा हुआ था। लीला-(डर कर मगर अपने को सम्हाल कर) परसों तुम कहा थे? कल कहा थे और आज सवेरा होने के पहिले तक कहा गायव थे? क्यों झूठी बात बना रहे हो? भैरों-परसों भी कल भी और आज भर भी मैं तुम्हारे साथ हीथा।मगर तुम्हारी नजरों से छिपा हुआ था हा जब दो घण्टे रात बाकी थी तब मैने तुम्हारा साथ छोड दिया और राजा साहय से जा मिला। अब मैं फिर तुम्हारे साथ जा रहा हू देवकीनन्दन खत्री समग्र ७५६