पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/६९७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

exi - भेष धारण किरा मनोरमा भी जाने लगी। उसे अपना काम पूरा होन की पक्की उम्मीद थी आर वह इस धुन में लगी हुई शी कि किशारी पर कामिनी की लौडियों में से कोई लौडी किसी तरह पीछे रह जाय ता काम चले। पहर दिन चढ तक राजा बीरन्दसिह का लरकार बराबर चला गया। जब धूप हुई ना एक हरे भरे जगल मे पडार डाला गया जला डखिम का इन्तजाम पाहेल हो स हो चुका था। पडाव पड जाने के थोड़ी दर बाद डॉखमो र लदे हुए सेकडों ऊट आगे की तरफ रवाना हुए जिनस दूसर दिन के पडाव का इन्तजाम होने वाला था। साकी का दिन आर तीन पहर रात तक व जगल गुलजार रहा और पहर रात रहते फिर वहाँ स लश्कर कूच हुआ। इसी तरह फूध दर कूच करत बीरेन्द्रसिह का लश्कर चुनारगढ की तरफ रवाना हुआ। तीन दिन तक तो मनोरमा का काम कुछ भी न हुआ पर चौथे दिन उसे अपना काम निकालने का मौका मिला जब किशारी की एक लौडी जिसका नाम दया था,हाथ में लोटा लिए मैदान जाने की नीयत से पडाव के बाहर निकली। उस समय घडी भर रात जा चुकी थी और चारातरफ अन्धकार छाया हुआ था। दया राहतासगढ़ के राजा दिग्विजसिह की लौडियों में से थी ओर किशोरी उसे मानती थी क्योंकि उस जमाने में जव किशारी कैदियों की तरह राहतासगढ में रहती थी दया न उसकी खिदमत वडी हमदर्दी के साथ की थी। दया का मैदान की तरफ जात दख मनोरमान उसका पीछा किया। दवे पॉव उसके साथ बराबर चली गई और जब जान; कि अब वह आगे न बढ़ेगी ता एक पेड की आड दकर खडी हो गई। थोड़ी देर बाद जब दया जरुरी काम से छुट्टी पाकर लौटी ता मनोरमा बधडक उसक पास चली गई और फुर्ती के साथ तिलिरमी खजर उसके मोढ़े पर रख दिया। उसी दम दया कॉपी और थरथरा कर जमीन पर गिर पडी। मनोरमा ने उसे घसीट कर एक झाडी के अन्दर डाल दिया और निश्चय कर लिया कि जब राजा वीरेन्द्रसिह का लश्कर यहां से कूच कर जावेगा और दिन निकल आवेगा तब सुभीते से दया की सूरत बन कर इसको जान से मार डालूगी और फिर तेजी के साथ चल कर लश्कर में जा मिलूगो आखिर एसा ही हुआ। थाडी रात रहे राजा बीरेन्द्रसिह का लश्कर वहाँ से कूच कर गया और जब पहर दिन चढे अगले पड़ाव पर पहुया ता किशारी ने दया की खोज की मगर दया का पता क्योंकर लग सकता था। बहुत सी लौडिया चारा तरफ फैल गई और दया को ढूढन लगी। दोपहर होत तक दया भी लश्कर में आ पहुची जो वास्तव में मनोरमा थी। किशोरी ने पूछा दया कहाँ रह गई थी? तेरी खोज में सव लौडियाँ अभी तक परेशान हो रही हैं। नकली दया ने जवाब दिया जिस समय लश्कर कूच हुआ ता मेरे पट में कुछ गडगडाहट मालूम हुई। थोड़ी दूर तक ता में जी कडा कर चली गई आखिर जब गडगडाहट ज्याद हुई और रास्त में एक कूआ भी नजर आया ता लाटा- डोरी लकर वहा ठहर गई! दादफना टट्टी गई और तीन के हुई कै में बहुत मा खट्टा पानी निकला। मैने समझा कि बस अव किसी तरह लश्कर के साथ नहीं मिल सकती और यहाँ पड़ी बहुत दुख भोगूगी मगर ईश्वर ने कुशल की थोडी देर तक मे उसी कूएँ पर लटी रही आखिर मेरी तबीयत ठहरी तो में धीरे-धीरे रवाना हुई और मुश्किल से यहाँ तक पहुची। कै करने में मुझ बहुत तकलीफ हुई आर मरा गला भी बैठ गया। किशारीन दया की अवस्था पर दुख प्रकट किया और उस दया की बातों पर विश्वास हो गया । अव दया का किशोरी के साथ मल जाल पैदा करन म किसी तरह का खुटका न रहा और दो ही चार दिन में उसने किशोरी को अपने ऊपर बहुत ज्याद मेहरवान उना लिया। राहतासगढ़ स चुनारगढ जान के लिए यद्यपि भली-चगी सडक बनी हुई थी मगर राजा धीग्द्रसिह का लश्कर सीधी सड़क छोड जगल और मैदान ही में पड़ाव डालता चला जा रहा था क्योकि हजारों आदमियों को आराम जगल और मेदान ही में मिलता था सड़क के किनार उतनी ज्याद जगह नहीं मिल सकती थी। एक दिन जब राजा वीरन्द्रसिह का लश्कर एक बहुत रमणीक और हरे-भरे जगल में पड़ाव डाले हुए था सध्या क समय राजा वीरेन्द्रसिह ओर तेजसिह टहलते हुए अपने खेमे से कुछ दूर निकल गये और एक छाटे से टीले पर चढकर अस्त होत हुए सूर्य की शोभा दखने लगे। यकायक उनकी निगाह एक सवार पर पड़ी जा बडी तेजी के साथ वाडा दीडरता हुआ वीरन्द्रसिह क लश्कर की तरफ आ रहा था। दोनों की निगाहें उसी की तरफ उठ गई और उसे बड़े गोर से देखन लग। थोडी ही दर में वह सवार टील के पास पहुच गया और उस समय उस सवार को भी निगाह राजा बीरेन्द्रसिह और तेजसिह पर पडी। सवार न तुरन्त घोडे का मुँह फेर दिया और बात की बात में राजा वीरेन्द्रसिह के पास पहुच कर घाड के नीच उतर पडा। जिस टील पर वह दोनों खडे थे वह बहुत ऊँचा न था अतएव उस सवार न नजा गाड कर घोडे की लगाम उसम अटका दी और बेखौफ टीले क ऊपर चढ़ गया। इस सवार के हाथ में एक चीठी थी जो चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १५