पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/६९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

CY 'बीरसेन रिनबीर से) आप यह न समझिये कि हमलोग कोई भेद आपसे छिपाते है या छिपावेंगे, बल्कि जिस भेद के बारे में आप पूछ रहे है वह ऐसा नहीं कि आप विना जाने रहें, हमलोग क्या यहा की एक एक दीवार उस भेद को आपसे कहेगी और बिना किसी के समझाये आप समझ जायेंगे। रनबीर-तुम भी क्या मसखरापन करते हो, विना समझाये मै समझ जाऊगा !! बीरसेन-जी हॉ ऐसा ही है। कुसुम-खैर तव बहुत कहने सुनने की कोई जरूरत नहीं इस बखेडे को भी तय ही कर डालना चाहिये। वीरसेन अच्छा तो कुसुम-(अपने ऑचल से एक ताली खोल ओर वीरसेन को देकर) लो तुम जाओ वहाँ रोशनी का इन्तजाम कर आओ तो हमलोग चलें। अच्छा मैं जाता हू बहुत जल्द लौटुगा कह बीरसेन वहाँ से उठे और महल की तरफ चले गये। भेद जानने के लिये रनवीरसिह की तबीयत घबडा रही थी, इन लोगों की अनोखी बातचीत ने उनकी उत्कठा और भी बढा दी थी यहा तक कि थाडी देर के लिये भी सब न कर सके और बीरसेन के जाने बाद अधीर हो कुसुमकुमारी का हाथ पकड पूछने लगे- "भला कुछ तो बताओ कि क्या मामला है सुनने के लिये जी बेचैन हो रहा है? कुसुम-अब क्या घबडा रहे हैं दम भर में सब मालूम ही हुआ जाता है, वीरसेन आ लें तो चल के जो कुछ है दिखा देते है। रनबीर--जब तक वीरसेन आवे तब तक कुछ बातचीत तो होनी चाहिये। कुसुम-तो क्या एक यही बातचीत रह गई है? लाचार बीरसेन के आने तक रनवीरसिह को सब करना ही पड़ा। जब वीरसेन लौट आये तो दोनों से योले-"चलिये सब तैयारी हो चुकी । झट रनवीरसिह उठ खडे हुए और हाथ थाम कुसुमकुमारी को उठाया। तीनों आदमी महल की तरफ रवाने हुए और बहुत जल्द उस कमरे में पहुचे जोखास कुसुमकुमारी के बैठने का था। लौडियाँ हटा दी गई और किवाड बन्द कर दिये गये। जिस जगह कुसुमकुमारी के बैठने की गद्दी विछी हुई थी उसी जगह तकिये के पीछे दीवार में एक दर्वाजा बना हुआ था। बीरसेन ने उसकाताला खोला। तीनों एक लम्बे चोड़े सजे हुए कमरे में पहुचे जिसमें दीवारगीरों में मोमबत्तियाँ जल रही थी और दिन की तरह उजाला हो रहा था। चारो तरफ दीवारों पर नजर डालते ही रनबीरसिंह चौके और एक दम दोल उठे, वाह वाह !यह क्या तिलिस्म है। उन्नीसवां बयान इस कमरे में बीस जोडी दुशाखी दीवारगीरें लगी हुई थीं जिनमें इस समय मोमबत्तियॉ जल रही थी. इसके सिवाय और कोई शीशा आईना या रोशनी का सामान कमरे में न था और न फर्श वगैरह ही बिछा हुआ था। सैकड़ों किस्म के खुशरग पत्थर के टुकडे जमीन पर इस खूबसूरती से जमाए हुए थे कि बेशकीमत गालीचे का गुमान होता था और वहाँ दिखाई फूल पत्तियों पर असली होने का घोखा होता था। चारो तरफ दीवारों पर मुसौवरों की अनोखी कारीगरी दिखाई देती थी अर्थात् इस खूबी की तस्वीरें बनी हुई थीं कि यकायक इस कमरे के अन्दर जाते ही रनबीरसिह को मालूम हुआ कि सैकडो आदमी इस कमरे में मौजूद है। एक तरफ दीवार से कुछ हट कर सगमर्मर की चौकियों पर दो पत्थर की मूरतें बैठाई हुई थी जिनकी पोशाक और सजावट देखने से मालूम होता था कि ये दोनों राजे है जो अभी बोला ही चाहते है। इन्हीं दोनों मूरतों पर देर तक रनबीरसिह की निगाह अटकी रही और सकते के आलम में ये भी पत्थर की मूरत की तरह देर तक बिना पथ पैर हिलाए खडे रहे क्योंकि इन दोनों मूरतों में एक मूरल इनके पिता की थी। थोडी देर बाद जब रनबीरसिह की बदहवासी कुछ कम हुई तो उन्होंने कुसुमकुमारी की तरफ घूम कर देखा और दोनों मूरतों में से एक की तरफ इशारा करके कहा- 'यह मेरे प्यारे पिता की मूरत है। मुझ पर बडा ही प्रेम रखते थे, न मालूम इस समय कहाँ और किस अवस्था में होंगे, दुश्मनों के हाथ से छुट्टी मिली या चैकुण्ठ चले गए !अच्छा हुआ जो मेरी माँ ने उस जगल ही में अपना सिर काट लिया नहीं तो आज उसे बडा ही कष्ट उठाना पडता ।" इतना कहते हुए रनबीरसिह उस मूरत के पास जाकर रोने लगे मगर उनकी बातें बेचारी कुसुमकुमारी की समझ में कुछ भी न आई और न वह इनको कुछ धीरज ही दे सकी, उनकी हालत देख इस बेचारी की आँखों में भी ऑसू भर आए कुसुम कुमारी १०७७