पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/६२४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मतलब था और तू इन शब्दों को सुन कर क्यों डरी थी? लाडिली-खून से लिखी किताय को आप जानते ही है जिसका दूसरा नाम रिक्तमाया है, और जो आजकल आपके कुअर इन्द्रजीतसिहजी के को में है। धीरेन्द्र-हाँ-हॉ सो क्यों न जानेगे वह तो हमारी ही चीज है और हमारे ही यहाँ से चोरी गई थी। लाडिली-जी हॉ तो उन शब्दों के विषय में भी मन बहुत बडा धोखा खाया। अगर कुन्दन को पहिचान जाती तो मुझे उन शब्दों से डरने की आवश्यकता न थी। खून से लिखी किताब अर्थात् रिक्तग्रन्थ से जितना सम्बन्ध मुझे था उतना ही कुन्दन को भी मगर कुन्दाने समझा कि भै भूतनाथ के रिश्तेदारों में से हूँ जिसने रिक्तगन्थ की चारी की थी और मैने यह सोचा कि कुन्दन को भेरा असल हाल मालूम हो गया वह जागई थी कि मैं मायारानी की वहिन लाडिली हूँ और राजा दिग्विजयसिह को धोखा दकर यहाँ रहती हूँ। मैं इस बात को यूब जानती थी कि यह रोहतासगढ़ का तहखाना जमानिया के तिलिरम से सम्बन्ध रखता है और यदि राजा दिग्विजयसिह के हाय रिक्तग्रन्थ लग जाय तो वह बडा ही खुश हो क्योंकि वह रिक्तगन्थ का मतलय खूप जानता है और उसे यह भी मालूम था कि भूतनाथ नरिक्तग्रन्थ की चोरी की थी और उसके हाथ से मायारानी रिक्तग्रन्थ ललने के उद्योग में लगी हुई थी और उस उद्याग में सबस मारी हिस्सा मैने लिया था। यह सब हाल उसे कभ्यस्त दारोगा की जुबानी मालूम हुआ था क्योंकि वह राजा दिग्विजयसिह से मिलने के लिए वरावर आया करता था और उससे निला हुआ था। नि सन्दह अगर मेरा हाल राजा दिग्विजयसिइ को मालूम हो जाता तो वह मुझे कैद कर लेता और रिक्तगप के लिए मेरी बड़ी दुर्दशा करता। बस इसी रमाल ने मुझ बदहवास कर दिया और मैं ऐसा डरी कि तनावदन की सुध जाती रही। क्या दिग्विजयसिह कभी इस बात को सोचता कि उसकी दारोगा से दास्ती और दारोगा लाडिली का पक्षपाती है? कभी नहीं वह बड़ा हो मतलवी और खोटा था। यीरेन्द-बेशक ऐसा ही है और तुम्हारा डरता यहुत पानिव था मगर हाँ एक बात ता तुमने कही ही नहीं। लाडिली-वह क्या? वीरेन्द- ऑचल पर मुलामी का दस्तावेज से बया मतलब था ? राजा बीरेन्द्रसिह की यह बात सुनकर लाडिली शर्मा गई और उसने अपने दिल की अवस्था को रोक कर सर नीचे कर लिया। जब राजा बीरेन्द्रसिंह ने पुन टोका तब हाथ जोडकर बोली आशा है कि महाराजा साहब इसका जवाब चाहने के लिए जिद्द न करेंगे और मेरा यह अपराध क्षमा करेंगे। मैं इसका जवाब अभी नहीं दिया चाहतो और बहाना करना या झूठ बोलना भी पसन्द नहीं करती । लडली की बात सुनकर राजा वीरेन्दसिह चुप हो रहे और कोई दूसरी बाल पूछना ही चाहते थे कि भैरोसिंह ने कमरे के अन्दर पैर रक्खा। बीरेन्द-(भैरों से ) क्या है ? भैरो-बाहर से खबर आई है कि मायारानी के दारोगा क गुरुभाई इन्द्रदेव जिनका हाल में एक दफे अर्ज कर चुका हूँ महाराज का दर्शन करने के लिए हाजिर हुए हैं। उन्हें ठहराने की कोशिश की गई थी मगर यह कहते हैं कि में पल भर भी नहीं अटक सकता और शीघ ही मुलाकात की आशा रखता हूं तथा मुलाकात भी महल के अन्दर लक्ष्मीदेवी के सामन करूँगा। यदि इस बात में महाराज साहय को उज हो तो लक्ष्मीदेवी से राय ले और जैसा वह कहे वैसा करें। इसक पहिले कि वीरेन्द्रसिह कुछ सोचे या लक्ष्मीदेवी से राय लें लक्ष्मीदवी अपनी युशी को रोक न सकी. उठ खडी हुई और हाथ जोड़ कर बाली महाराज से मैं सविनय प्रार्थना करती हूँ कि इन्द्रदेवजी को इसी जगह आने की आज्ञा दी जाय। वे मेरे धर्म पिता है, में अपना किस्सा कहते समय अर्ज कर चुको हूँ कि उन्होंने मेरी जान बचाई थी वे इभ लागों के सच्चे खैरखाह और भला चाहने वाले है। वीरेन्द-वेशक येशक, हम उन्हें बुलायेंगे हमारी लड़कियों को उनसे पर्दा करने की कोई आवश्यकता नहीं है । भैरोसिह की तरफ देखकर ) तुम स्वय जाओ और उन्हें शीघ्र इसी जगह ले आओ। 'बहुत अच्छा कहकर भैरोसिह चला गया और थोड़ीही देर में इन्द्रदेवको अपने साथ लिये आ पहुँचा। लक्ष्मीदेवी उन्हें देखते हीउनके पैरों पर गिर पड़ी और ऑसू बहाने लगी। इन्द्रदेव ने उसके सर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दिया कमलिनी और लाडिली ने भी प्रणाम किया और राजा वीरेन्दसिह ने सलाम का जवाब देने के बाद उन्हें खातिर से अपने पास बैठाया। धीरेन्द-(मुस्कुराते हुए ) कहिए आप कुशल से तो हैं । राड में कुछ तकलीफ तो नहीं हुई ? इन्ददेव-(हाथ जोड़ कर ) आपकी कृपा से में बहुत अच्छा हुँ सफर में हजार तकलीफ उठाकर आने वाला भी देवकीनन्दन खत्री समग्र ६१६