पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/६२२

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3 भूतनाथ-(जो बड़े गौर से इन्द्रदव का वडवडाना सुन रहा था) हॉ-हाँ आप उसे देख सकते हैं मेरे साथ रोहतासगढ चलिये। इन्द्र-तुम्हारे साथ चलने की कोई आवश्यकता नहीं तुम इसी जगह रहो मैं अकेला ही जाऊँगा और बहुत जल्द ही लौट आऊँगा। इतना कह कर इन्द्रदेव ने ताली बजाई और आवाज के साथ ही अपने दो आदमियों को कमरे के अन्दर आते देखा। इन्द्रदेव अपने आदमियों से यह कह कर कि तुम लोग भूतनाथ को खातिरदारी के साथ यहाँ रक्खो जब तक कि मैं एक छोटे सफर से न लौट आऊँ कमरे के बाहर हो गये और तब दूसरे कमरे में जिसकी ताली वे अपने पास ही रक्खा करते थे ताला खोल कर चले गये। इस कमरे में सूटियों के सहारे तरह-तर, के कपड़े ऐयारी के बहुत से बटुए रग-बिरग के नकाब, एक से एक बढ़ कर नायाब और बेशकीमत हर्व और कमरवन्द वगेरह लटक रहे थे और एक तरफ लोडे तथा लकड़ी के छोटे-बड़े कई सन्दूक भी रक्खे हुए थे। इन्द्रदेव न अपन भतलव का जोडा (वेशकीमत पौशाकोखूटी से उतार कर पहिन लिया और जो कपडे पहिरे हुए थे उतार कर एक तरफ रख दिये। सुर्ख रग की नकाय उतार कर चेहरे पर लगाईऐयारीकाबदुआवगलमेंलटकाने के बादयेशकीमतोंसे अनिकोदुरूस्तकिया और इसकेबादलोहे के एकसन्दूक मेंसेकुछनिकालकरकमरमें रखकमरे केवाहरनिकल आये कमर का ताला चन्द किया और तव विना भूतनाथ से मुलाकात किये ही वहाँ से रवाना हो गये। ग्यारहवाँ बयान रोहतासगढ में महल के अन्दर खूबसूरत सजे हुए कमरे में राजा वीरेन्द्रसिह ऊँची गद्दी के ऊपर बैठे हुए हैं बगल में तजसिह और देवीसिह बैटे है तथा सामने की तरफ किशोरी कमलिनी लक्ष्मीदवी, कमलिनी लाडिली और कमला अदव के साथ सिर झुकाये बैठी है। आज राजा वीरेन्द्रसिह अपने दोनों ऐयारों के सहित यहाँ बैठ कर उन सभी की बीती हुईदुःख भरी कहानी बड़े गौर से कुछ सुन चुके हैं और बाकी सुन रहे है। दर्वाजे पर भैरोसिह और तारासिह खड़े पहरा दे रहे है। क्सिी लौडी तक का भी वहाँ आने की आज्ञा नहीं है। किशोरी कामिनी कमलिनी कमला और लक्ष्मीदेवी का हाल सुन चुके है इस समय लाडिली अपना किस्सा कह रही है। लाडिली अपना किस्सा कहते-कहते बोली- लाडिली-जय मायारानी की आज्ञानुसार धनपत और मै नानक और किशोरी के साथ दुश्मनी करने के लिए जमानिया से निकली तो शहर के बाहर होकर हम दोनों अलग हो गए। इत्तिफाक की बात है कि धनपत सूरत बदल के इसी किले में आ रही और मैं भी घूमती-फिरती भेष बदले हुए किशोरी का यहा होना सुन कर इसी किले में आ पहुंची और हम दोनों ही ने रानी साहियाकी नौकरी कर ली। उस समय मेरा नाम लाली था। यद्यपि इस मकान में मेरी और धनपत की मुलाकात हुई और बहुत दिनों तक हम दोनों आदमी एक ही जगह रहे भी भगर न तो मैंने धनपत को पहिचाना जो कुन्दन के नाम से यहॉ रहती थी और न धनपत ही ने मुझ पहिचना । (ऊची सास लेकर) अफसोस मुझे उस समय का हाल कहते हुए शर्म मालूम होती है क्योंकि मैं बेचारी निर्दोष किशोरी के साथ दुश्मनी करने के लिये तैयार थी। यद्यपि मुझे किशोरी की अवस्था पर रहम आता था मगर मै लाचार थी क्योंकि मायारानी के कब्जे में थी और इस बात को खूय समझती थी कि यदि मै मायारानी का हुक्म न मानूगी तो निसन्देह वह मेरा सिर काट लेगी। इतना कह कर लाडिली रोने लगी। वीरेन्द्र-(दिलासा देते हुए) बटी अफसोस करने को कोई जगह नहीं है। यह तो बनी-बनाई बात है कि यदि काई धर्मात्मा या नेक आदमी शैतान के कब्जे में पड़ा हुआ होता है तो उसे झक मार कर शैतान की बात माननी पड़ती है। मैं खूब समझता हूँ ओर विश्वास दिलाया जा चुका हूँ कि तू नेक है तेरा कोई दोष नहीं जो कुछ किया कम्बख्त दारोगा तथा मायारानी ने किया अस्तु तू कुछ चिन्ता मत कर और अपना हाल कह । ऑचल से ऑसू पोंछ कर लाडिली ने फिर कहना शुरु किया- लाडिली--मै चाहती थी कि किशोरी को अपने कब्जे में कर लूं और तिलिस्मी तहखाने की राह से बाहर होकर इसे मायारानी के पास ले जाऊँ तथा धनपत का भी इरादा यही था। इस समब से कि यहाँ का तहखाना एक छोटा सा तिलिस्म है और जमानिया क तिलिस्म से समबन्ध रखता है यहाँ तहखाने का बहुत कुछ हाल मायारानी को मालूम है और उसने मुझे और धनपत को बता दिया था अस्तु किशारी को लेकर यहाँ के तहखाने की राह से निकल जाना मेरे या धनपत के लिए कोई बड़ी बात न थी। इसके अतिरिक्त यहाँ एक बुढ़िया रहती थी जो रिस्त में राजा दिग्विजयसिह की देवकीनन्दन खत्री समग्र ६१४