पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/६१८

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4 eri लक्ष्मी क्यों? नकाय-इसलिए कि अभी महीना भर भी नहीं हुआ कि राजा मोपालसिह का भी इन्तकाल हो गया। अब तुम्हारी फरियाद सुनने वाला वहाँ कोई भी नहीं है और यदि तुम वहाँ जाओगी और मायारानी को कुछ मालूम हो जायगा तो तुम्हारी जान कदापि नहीं बचेगी। इतना सुन कर लक्ष्मीदेवी अपनी बदकिस्मती पर रोने लगी और नकाबपोश उसे समझाने लगा। अन्त में लक्ष्मीदेवी ने कहा अच्छा फिर तुम्ही बताओ कि मैं कहाँ जाऊँ और क्या करै? नकाव-(कुछ सोचकर) तो तुम मेरे ही घर चलो मैं तुम्हें अपनी ही बेटी समरिश और परवरिश करूँगा। लक्ष्मी-मगर तुम तो अपना परिचय तक नहीं देते। नकाब-(ऊँची सॉस लेकर ) खैर अब परिचय देना ही पडा और कहना ही पड़ा विश मैं तुम्हारे बाप का दोस्त इन्ददेव हूँ! इतना कर कर नकाबपोश ने चेहरे से नकाब उतारी और पूर्ण चन्द्र की रोशनी न उसके चेहरे क हर एक रग-रेश को अच्छी तरह दिखा दिया। लम्मीदेवी उसे देखते ही पहिचान गई और दौड कर उसके पैरों पर गिर पड़ीं। इन्द्रदेव ने उठा कर उसका सिर छाती से लगा लिया और तब उसे अपने घर ले आफर गुप्त रीति से बडी खातिरदारी के साथ अपने यहाँ रक्खा। लक्ष्मीदेवी का दिल फाडे की तरह पका हुआ था। यह अपनी नई जिन्दगी में तरह-तरह की तकलीफें उठा चुकी श्री। अब भी वह अपने बाप को खोज निकालने की फिक्र में लगी हुई थी और इसके अतिरिक्त उसका ज्यादा ख्याल इस बात पर था कि किसी तरह अपने दुश्मनों से बदला लेना चाहिए। इस विषय पर उसने बहुत कुछ विचार किया और अन्त में यह निश्चय किया कि इद्रदेव से ऐयारी सीखनी चाहिए क्योंकि वह खूब जानती थी कि इन्द्रदेव ऐयारी क फन में बडा ही होशियार है। आखिर उसने अपने दिल का हाल इन्ददेव से कहा और इन्द्रदेव ने भी उसकी राय पसन्द की तथा दिलोजान से कोशिश करके उसे ऐयारी सिखाने लगा। यद्यपि वह दारागा का गुरुभाई थातथापि दारोगा की करतूतों ने उसे हद से ज्यादा रजीदा कर दिया था और उसे इस बात की कुछ भी परवाह न थी कि लक्ष्मीदेवी ऐयारी के फन में होशियार हाकर दारागा से बदला लेगी। निसन्देह इन्द्रदेव ने बड़ी मर्दानगी की और दोस्ती का हक जैसा चाहिए वैसा ही निबाहा। उसने बड़ी मुस्तैदी के साथ लक्ष्मीदेवी को एयारों की विद्या सिखाई बड़े-बड़े ऐयारी के किस्से सुनाये एक से एक बर्ड चढे नुस्खे सिखलाये और ऐयारी के गूढ तत्वों का उसके दिल में नक्श (अकित) कर दिया। थोडे ही दिनों में लक्ष्मीदेवी पूरी एयार हो गई और इन्ददेव की मदद से अपना नाम तारा रख कर मैदान की हवा खाने और दुश्मनों से बदला लेने की फिक्र में घूमने लगी। लक्ष्गदवी ने तारा बन कर जा-जो काम किया सब में इन्द्रदेव की राय लेती रही और इन्ददेव भी बराबर उसकी मदद और खबरदारी करत रहे। यद्यपि इन्द्रदव ने लक्ष्मीदेवी की जान बचाई उसे अपनी लडकी के समान पाल कर सब लायक किया और बहुत दिनों तक अपने साथ रक्खा मगर उनके दो एक सच्चे प्रेमियों के सिवाय लक्ष्मीदेवी का हाल और किसी को मालूम न हुआ और इन्ददेव ने भी किसी को उसकी सूरत तक देखनन दी। इस बीच में पचीसो दफे कम्बख्त दारोगा इन्द्रदेव के घर गया और इन्द्रदेव ने भी अपने दिल का भाव छिपा कर हर तरह से उसकी खातिरदारी की मगर दारोगा तक को इस बात का पता न लगा कि जिस लक्ष्मीदेवी को मैंने कैद किया था यह इन्द्रदद के घर में मौजूद है और इस लायक हो रही है कि कुछ दिनों के बाद हों लोगों से बदला ले। लक्ष्मीदेवी का तारा नाम इन्द्रदेव ही ने रक्खा था। जव तारा हर तरह से होशियार हो गई और वर्षों की मेहनत से उसकी सूरत शक्ल में भी बहुत बड़ा फर्क पड़ गया तब इन्द्रदेव ने उसे आज्ञा दी कि तू मायारानी के घर जाकर अपनी बहिन कमलिनी से मिल जो बहुत ही नेक और सच्ची है मगर अपना असली परिचय न देकर उसके साथ मोहब्बत पैदा कर और ऐसा उद्योग कर कि उसमें और मायारानी में लडाई हो जाय और वह उस घर से निकल कर अलग हो जाय फिर जो कुछ होगा देखा जायगा 1 केवल इतना ही नहीं इन्द्रदेव ने उसे एक प्रशसापत्र भी दिया जिसमें यह लिखा हुआ था- मैं ताग को अच्छी तरह जानता हूँ यह मेरी धर्म की लड़की है इसका चाल चलन बहुत ही अच्छी है और नेक तथा धार्मिक लोगों के लिए यह विश्वास करने योग्य है। इन्ददेव न तारा को यह भी कह दिया कि मेरा यह पत्र सिवाय कमलिनी के और किसी को दिखाइयो और जर इस बात का निश्चय हो जाय कि वह तुझ पर मुहय्यत रखती है तब उसको एक दफे किसी तरह से मेरे घर ले आइयो फिर जैसा होगा मैं समझ लूंगा। देवकीनन्दन खत्री समन्त्र ६१०