पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/६१५

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आठवॉ बयान हम ऊपर लिख आए है कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिह अजायबघर के किसी तहखाने में कैद किए गए थे। मगर मायारानी और हेलासिह इस बात को नहीं जानते थे कि उन दोनों को दारोगा ने कहाँ कैद कर रक्खा है। इसके कहने सुनने की कोई आवश्यकता नहीं कि बलमदत्तिह और लक्ष्मीदेवी कैदखाने में क्योंकर मुसीबत के दिन काट रहे थे। ताज्जुब की बात तो यह थी कि दारोगा अक्सर इन दोनों के पास जाता और बलभद्रसिंह के ताने और गालियाँ बरदाश्त करता। मगर उसे किसी तरह की शर्म नहीं आती थी। जिस घर में दोनों कैद थे उसमें रात और दिन का विचार करना कठिन था। उन दोनों से थोड़ी ही दूर पर एक चिराग दिन रात जला करता था जिसकी रोशनी में वे एक दूसरे के उदास और रजीदे चेहरे को बराबर देखा करते थे। जिस कोठरी में वे दोनों कैद थे उसके आग लोहे का जगला लगा हुआ था तथा सामने की तरफ एक दालान और दाहिने तरफ एक कोठरी तथा बाई तरफ ऊपर चढ जाने का रास्ता था। एक दिन आधी रात के समय खटके की आवाज सुनकर लक्ष्मीदेवी जो एक मामूली कम्बल पर सोई हुई थी उठ बैठी और सामन की तरफ देखने लगी। उसने देखा कि सामने सीढिया उत्तर कर चेहरे पर नकाब डाले एक आदमी आ रहा है। जब लोहे वाले जगले के पास पहुंचा तो उसकी तरफ देखने लगा कि दोनों कैदी सोये हुए है या जागते मगर जब उसने लक्ष्मीदेवी को बैठे हुए पाया तो बोला 'बेटी मुझे तुम दोनों की अवस्था पर बड़ा ही रज होता है मगर क्या करूं लाचार हूँ, अभी तक तो काई मौका मेरे हाथ नहीं लगा मगर फिर भी मै यह कहे बिना नहीं रह सकता कि किसी न किसी दिन तुम दोनों को मैं इस कैद से जरूर छुडाऊँगा। आज इस समय मै केवल यह कहने के लिए आया हूँ कि आज दारोगा ने बलभदसिह को जो खाने की चीजें दी उसमें जहर मिला हुआ था। अफसोस कि बेचारा बलभद्रसिंह उसे खा गया ताज्जुब नहीं कि वह इस दुनिया से घटे ही दो घटे में कूच कर जाये लेकिन यदि तू उसे जगा दे और जो कुछ मैं कहूँ करे तो नि सन्देह उसकी जान बच जायेगी। वैचारी लक्ष्मीदेवी के लिए पहिले की मुसीबतें क्या कम थीं और इस खवर ने उसके दिल पर क्या असर किया,सो वहीं जानती होगी। वह घबराई हुई अपने बाप के पास गई जो एक कम्बल पर सो रहा था। उसने उसे उठाने की कोशिश की मगर उसका बाप न उठा तब उसने समझा कि बेशक जहर ने उसके बाप की जान ले ली मगर जब उसने नब्ज पर उँगली रक्खी तो नब्ज को तेजी के साथ चलता पाया। लक्ष्मीदेवी की आँखों से बेअन्दाज ऑसूजारी हो गये। वह लपक कर जगले के पास आई और उस आदमी स हाथ जोड़ कर बोली निसन्देह तुम कोई देवता हो जो इस समय मेरी मदद के लिए आए हो । यद्यपि मै यहाँ मुसीबत के दिन काट रही हूँ मगर फिर भी अपने पिता को अपने पास देखकर मैं मुसीबत को कुछ नहीं गिनती थी अफसोस दारोगा मुझे इस सुख से भी दूर किया चाहता है। जो कुछ तुमने कहा सो बहुत ठीक है इसमें कुछ सन्देह भी नहीं कि दारोगा ने मेरे बाप को जहर दे दिया मगर मैं तुम्हारी दूसरी बात पर भी विश्वास करती हूँ जो तुम अभी कह चुके हो कि यदि तुम्हारी बताई हुई तर्कीब की जायेगी तो इनकी जान बच जायगी। नकाबपोश-बेशक एसा ही है (एक पुडिया जगले के अन्दर फेंक कर) यह दवा तुम उनके मुँह में डाल दो घण्टे ही भर में जहर का असर दूर हो जायगा और मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि इस दवा की तासीर से भविष्य में इन पर किसी तरह के जहर का असर न हो पायेगा। लक्ष्मीदेवी-अगर ऐसा हो तो क्या बात है। नकाबपोश-देशक ऐसा ही है पर अब विलम्ब न करो वह दवा शीघ अपने बाप के मुँह में डाल दो लो अब मै जाता हूँ ज्यादे देर तक ठहर नहीं सकता। इतना कह कर नकाबपोश चला गया और लक्ष्मीदेवी ने पुडिया खोल कर अपने बाप के मुँह में वह दवा डाल दी। इस जगह यह कह देना हम उचित समझते हैं कि यह नकाबपोश जो आया था दारोगा का वही मित्र जैपालसिह था और इसे दारोगा ने अपने इच्छानुसार खूब सिखा पढ़ा कर भेजा था। वह अपने चेहरे और बदन को विशेष कर के इस लिए ढोंके हुए था कि उसका चेहरा और तमाम बदन गर्मी के जख्मों से गन्दा हो रहा था और उन्हीं जमों की बदौलत वह दारोगा का एक भारी काम निकालना चाहता था। दवा देने के घण्टे मर याद बलभदसिह होश में आया। उस समय लक्ष्मी देवी बहुत खुश हुई और उसने अपने बाप स मिजाज का हाल पूछााबलभदसिह ने कहा 'मैं नहीं जानता कि मुझे क्या हो गया था और अब मेरे बदन में चिंगारिया क्यों छूट रही हैं। लक्ष्मीदेवी ने सब हाल कहा जिसे सुन कर बलभदसिह बोला ठीक है, तुम्हारी खिलाई हुई चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १३ ६०७