पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/४५९

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Geri माया-हा अच्छा इसन क्या कहा? 1 धनपत-इसने केवल इतना कहा कि मैं बडी देर से तुम लोगों की राह देख रही हूँ। इसके जवाब में आये हुए दोनों आदमियों में स एक ने कहा 'देशक तून अपना यादा पूरा किया जिसका इनाम मै इसी समय तुझे दूंगा मगर आज किसी कारण से कमलिनी यहा न आ सकी हम लोग कवल इतना ही कहने आए है कि कल आधी रात को आज ही की तरह फिर चोर दर्वाजा खोल दीजियो तुझ आज से ज्यादे इनाम दिया जायगा। यह कम्बख्त यहुत अच्छा कह कर चुप हो गई और फिर किसी के यातचीत की आवरजन आइ। थोड़ी ही देर में उन दोनों आदमियों को अगूर की टट्टी स निकल कर दक्खिन की तरफ जाते हुए मैंने देखा उन्ही के पीछे पीछे यह मालिन भी चली गई और चुपचाप उसी जगह घडी रही। माया-तुमने गुल मचा कर उन दोनों का गिरफ्तार क्यों न किया? धनपत में यह सोच कर चुप हो रही कि यदि दोनों आदमी गिरफ्तार हो जायेंगे तो कल रात को इस बाग में कमलिनी का आना न होगा। माया-ठीक है तुमन बहुत अच्छा सोचा हा तब क्या हुआ ? धनपत-थोडी देर बाद मै वहा से उठी और पीछे की तरफ लौट कर बाग में होशियारी के साथ टहलन लगी। आधी घडी न चीती थी कि यह मालिन लौट कर आपके डेर की तरफ जाती हुई मिली। मैने झट इसकी कलाई पकड ली और यह देखने के लिए दबाज की तरफ गई कि इसने दाजा बन्द कर दिया या नहीं। वहा पहुच कर मेने दर्वाजा बन्द पाया तव इस कमीनी को लिए हुए आपके पास आई। माया--(मालिन की तरफ देखकर ) क्यो रे । तुझ पर जो कुछ दोष लगाया गया है यह सच है या झूठ मालिन ने मायारानी की बात का कुछ जवाब न दिया। तब मायारानी ने पहरा देने वाली लोडियों की तरफ देख के कहा आज रातको तुम लोगों की मदद से अगर कमलिनी गिरफ्तार हो गई तो ठीक है नहीं तो मे समझूगी कि तुम लोग भी इस मालिन की तरह नमकहराम होकर दुश्मनों से मिली हुई हो। पहरा देन वाली लौडियों ने मायारानी को दण्डवत् किया और एक ने कुछ आग बढ़ कर और हाथ जोड़ कर कहा 'बेशक आप हम लागों को नेक और ईमानदार पावेंगी (धनपत की तरफ इशारा करके) आपकी बात स निश्चय होता हे कि आज रात को कमलिनी जी इस बाग में जर आवेगी। अगर ऐसा हुआ तो हम लाए उन्हें गिरफ्तार किए बिना कदापिन रहेगे ॥ मायारानी ने कहा हा एसा ही होना चाहिए मैं खुद भी इस काम में तुम लोगों का साथ दूंगी और आधी रात के समय अपने हाथ से चार दर्वाजा खोल कर उसे बाग के अन्दर आने का मौका दूंगी। देखी होशियार और खबरदार यह बात किसी के कान में न पड़ने यावे । ? ।। आठवा भाग समाप्त ।। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग ४४३