विहारी-हरनामसिह का कहना ठीक है, बाहर खडे हाकर आपके हाथ से चलाई हुई एक तीर उसका काम तमाम कर सकती है। माया-नहीं यदि एसा होता तो में उसे बिना मारे लौट ने आती मेरे कई तीर व्यर्थ गय और नतीजा कुछ भी न निकला। विहारी-(चांक कर) सो क्यो? माया-उसक हाथ में एक ढाल है। न मालूम वह ढाल उस किसने दी जिस पर वह तीर रोक कर हसता है और कहता है कि अब मुझे कोई मार नहीं सकता। विहारी-(कुछ साच कर) अब अनर्थ होने में काई सन्देह नहीं, यह काम वशक चण्डल का है। कुछ समझ में नहीं आता कि वह कौन कम्बख्त है? माया-अब साच विचार में विलम्ब करना उचित नहीं जो हाना था सो हो चुका अव जान बचाने की फिक्र करनी चाहिए। बिहारी-आपने क्या विचारा? माया-तुम लोग यदि मेरी मदद न करोग तो मेरी जान न बची और जब मुझ पर आफत आधेगी तो तुम लोग भी जीते न बचोग। विहारी-हों यह तो ठीक है जान बचाने के लिए कोई न कोई उद्योग तो करना ही होगा। माया-अच्छा तो तुम लोग मर साथ चला और जिस तरह हा उस कैदी को यमलोक पहुचाओ। मुझे विश्वास हो गया कि उस कदी की जान क साथ हम लोगों की आधी बला टल जायगी और इसके बदले में मैं तुम दोनों को एक लाख दूगी। हर-काम ता बडा कठिन है? यद्यपि विहारीसिह और हरनामसिह अपने हाथ से उस कंदी का मारा नहीं चाहत ये तथापि मायारानी की मीटी मीठी बातों स ओर रुपये की लालच तथा जान के डर से व लाग यह अनर्थ करने के लिए तैयार हो गये। धनपत और दोनों ऐयारों को साथ लिए हुए मायारानी फिर बाग क चौथे दर्जे की ओर रवाना हुई। सूर्य भगवान के दर्शन ता नहीं हुए थे मगर सवरा हो चुका था और मायारानी के नौकर नीद स उठ कर अपने अपने कामों में लग चुके थेलेकिन मायारानी का ध्यान उस तरफ कुछ भी न था उसन उस बचारे कैदी की जान लेना ही सब से जबरी काम समझ रक्खा था। थोड़ी ही देर में चारा आदमी याग का चौथ दर्जे में जा पहुचे और कूए के अन्दर उतर कर उस कैदखाने में गये जिसमें मायारानी का वह अनूठा कैदी बन्द था। मायारानी का उम्मीद थी कि उस कैदी को फिर उसी तरह हाथ में ढाल लिए हुए देखगी मगर एसा न हुआ। उस जगल वाली काठरी का दर्वाजा खुला हुआ था और उस कैदी का कहीं पता न -- था। वहा की ऐसी अवस्था देख कर मायारानी अपन रज और गम को सम्हाल न सकी और एकदम हाय करके जमीन । पर गिर कर बेहोश हो गई। धनपत और दानों ऐयारों के भी होश जाते रहे उनके चेहरे पीले पड़ गए और निश्चय हो गया कि अब जान लाने में कोई कसर नहीं है। केवल इतना ही नहीं बल्कि डर के मारे वहा ठहरना भी वे लोग उचित न समझते थे मगर येहाश मायारानी को वहा से उठा कर बाग क दूसरे दर्ज में ले जाना भी कठिन था इसलिए लाचार हाकर उन लागों का वहाँ टहरना पड़ा। बिहारीसिह न अपन बटुए में से लखलखा निकाल कर मायारानी को सुघाया और कोई अर्क उसके मुह में टपकाया। थोड़ी देर में मायारानी होश में आई और पढ़ पडे नीचे लिखी बातें प्रलाप की तरह यफने लगी हाय आज मरी जिन्दगी का दिन पूरा हो गया और मरी मोत आ पहुँची। हाय मुझ तो अपनी जान का धाखा उसी दिन हा चुका था जिस दिन कम्बख्त नानक ने दबार में मेरे सामने कहा था कि काठरी की ताली मरे पास है जिसमें किसी के खून से लिखी हुई किताव रक्खी है । इस समय उसी किताव ने धोखा दिया। हाय उस किताब के लिए नानक का छोड दना ही बुरा हुआ। यह काम उसी हरामजाद का है लाडिली और धनपत के किए कुछ भी न हुआ। (धनपत की तरफ देख कर) सच ता या है कि मेरी मात तेरे ही सबब से हुई। तरी मुहब्बत ने मुझे गारत किया तर ही सवव सने पाप की गठरी सिर पर लादी तरे ही सबब मेंने अपना धर्म खोया तेरे ही सबब से मैं बुरे कामो पर उतारू हा तर ही सथय म मैंने अपने पति के साथ बुराई की तरे ही सबय से मैंने अपना सर्वस्य बिगाड दिया। तरे ही सवय स म धीरन्द्रसिह के लड़कों के साथ बुराई करने के लिए तैयार हुई तेरे ही सवय से कमलिनी मेरा साथ छाड कर देखिए चौथा भाग सातवा चयान । देवकीनन्दन खत्री समग्र ४१८
पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/४३८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।