पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/३५८

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ori कमला-कामिनी को साथ लेकर मैं उस खडहर से जिसमें नाहरसिह से और कुंअर इन्द्रजीतसिह से लडाई हुई थी बाहर निकली और किशोरी को छुडाने की धुन में रवाना हुई मगर कुछ कर न सकी बल्कि यों कहना चाहिए कि अभी तक मारी फिरती हूँ। यद्यपि इस रोहतासगढ के महल तक पहुंच चुकी थी मगर मेरे हाथ से कोई काम न निकला। वीरेन्द-खैर कोई हर्ज नहीं अच्छा यह बता कि अब कामिनी कहाँ है ? कमला-कामिनी को मेरे चाचा शेरसिह ने अपने एक दोस्त के घर में रक्खा है मगर मुझे यह नहीं मालूम कि यह कौन है और कहाँ रहता है। चीरेन्द्र-शेरसिह से कामिनी क्योंकर मिली? कमला-यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक खडहर है। शेरसिह से मिलने के लिए कामिनी को साथ लेकर में उसी खडहर में गई थी। मगर अब सुनने में आया है कि शेरसिह ने आपकी तावेदारी कबूल कर ली और आपने उन्हें कहीं भेजा है। वीरेन्द्र हों वह देवीसिह को साथ लेकर इन्द्रजीत को छुड़ाने के लिए गये है मगर न मालूम क्या हुआ कि अभी तक नहीं लौटे। कमला-कुँअर इन्द्रजीतसिह तो यहाँ से दूर न थे और चाचा को वह जगह मालूम थी अब तक उन्हें लौट आना चाहिए था। वीरेन्द-क्या तुझे भी यह जगह मालूम है ? कमला-जी हाँ यहॉ से शायद पच्चीस या तीस कोस से ज्यादे दूर न होगा। एक छोटा सा तालाय है जिसके बीच में एक खूबसूरत मकान बना हुआ है कुमार उसी में है। वीरेन्द-क्या तू वहाँ तक मुझे ले जा सकती है? कमला-जी हाँ आप जब चाहे चले मुझे रास्ता वसूची मालूम है। इस समय कुँअर आनन्दसिह न जो सिर झुकाए सब बातें सुन रहे थे अपने पिता की तरफ देखा और कहा यदि आज्ञा हो तो मै कमला के साथ भाई की खोज में जाऊँ? इसके जवाब में राजा इन्द्रजीतसिह ने सिर हिलाया अर्थात् उनकी अर्जी नामजूर कर दी। राजा वीरेन्द्रसिह और कमला में जो कुछ बात हो रही थी सब कोई गौर से सुन रहे थे। यह कहना जरा मुश्किल है कि उस समय कुँअर आनन्दसिह की क्या दशा थी। कामिनी के वे सच्चे आशिक थे मगर वाह रे दिल इस इश्क को उन्होंने जैसा छिपाया उन्हीं का काम था। इस समय वे कमला की बातें बड़े गौर से सुन रहे थे। उन्हें निश्चय था कि जिस जगह शेरसिह ने कामिनी को रक्खा है वह जगह कमला को मालूम है मगर किसी कारण से बताती नहीं इसलिए कमला के साथ भाई की खोज में जाने के लिए पिता से आज्ञा मॉगी। इसके सिवाय कामिनी के विषय में और भी बहुत सी वातें कमला से पूछा चाहते थे मगर क्या करें लाचार कि उनकी अर्जी नामजूर की गई और वे कलेजा मसोस कर रह गए इसके बाद आनन्दसिह फिर अपने पिता के सामने गए और हाथ जोड कर बोले "मैं एक बात और अर्ज किया चाहता हूँ। वीरेन्द्र-वह क्या २ आनन्द-इस रोहतासगढ की गद्दी पर मैं बैठाया गया हूँ परन्तु मेरी इच्छा है कि बतौर सूबेदार के यहाँ का राज्य किसी के सुपुर्द कर दिया जाय। आनन्दसिह की यात सुन राजा वीरेन्द्रसिह गौर में पड़ गये और कुछ देर तक सोचने के बाद बोले," ) मे तुम्हारी इस राय को पसन्द करता हूँ और इसका वन्दोवस्त तुम्हारे ही ऊपर छोड़ता हूँ, तुम जिसे चाहो इस काम के लिए चुन लो। आनन्दसिह ने झुक कर सलाम किया और उन लोगों की तरफ देखा जो वहाँ मौजूद थे। इस समय समों के दिल में खुटका पैदा हुआ और सभी इस बात से डरने लगे कि कहीं ऐसा न हो कि यहाँ का बन्दोबस्त मेरे सुपुर्द किया जाय, क्योंकि उन लोगों में से कोई भी ऐसा न था जो अपने मालिक का साथ छोडना पसन्द करता। आखिर आनन्दसिह ने सोच समझ कर अर्ज किया- आनन्द-मैं इस काम के लिए पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी को पसन्द करता हूँ। वीरेन्द-अच्छी बात है कोई हर्ज नहीं। ज्योतिषीजी ने बहुत कुछ उच्च किया चावेला मचाया, मगर कुछ सुना नहीं गया। उसी दिन से मुद्दत तक रोहतासगढ़वाहमणों की हुकूमत में रहा और यह हुकूमत हुमायूँ के जमाने में ९४४ हिजरी तक कायम रही इसके बाद ९४५ में दगाबाज शेरखा ने यह दूसरा शेरखा था) रोहतासगढ के राजा चिन्तामन ब्राह्मणों को धोखा देकर किले पर जपना कब्जा कर लिया। देवकीनन्दन खत्री समग्र