पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/३४५

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तरफ मुंह किए हुए मालूम होता है किसी के आने की राह देख रहा है क्योकि किसी तरह की जरा सी भी आहट आने पर चौक जाता है और चैतन्य होकर दर्ताजे की तरफ देखने लगता है। यकायक चौखट के अन्दर पैर रखते हुए एक वृद्ध बाबाजी की सूरत दिखाई पड़ी। उनकी अवस्था अस्सी वर्ष से ज्यादे होगी, नाभी तक लम्बी दाढी और सर के फैले हुए बाल रूई की तरह सुफेद हो रहे थे कमर में केवल एक कोपीन पहिने और शेर की खाल ओढे कमरे के अन्दर आ पहुंचे। उन्हें देखते ही राजा दिग्विजयसिह उठ खड़े हुए और मुस्कुराते हुए दण्डवत करके बोले. आज बहुत दिनों के बाद दर्शन हुए हैं समय टल जाने पर सोचता था कि शायद आज आना न हो। बाबाजी ने आशीर्वाद देकर कहा- राह में एक आदमी से मुलाकात हो गई इसी से विलम्ब हुआ। इस समय कमरे में एक सिहासन मौजूद था। दिग्विजयसिह ने उसी सिहासन पर साधु को वैठाया और स्वय नीचे फर्श पर बैठ गया इसके बाद यों चातचीत होने लगी- साधु-कहा क्या निश्चय किया? दिग्दि (हाथ जोड कर ) किस विषय में । साघु-यही बीरेन्द्रसिह के विषय में। दिग्वि-सिवाय तावेदारी कबूल करने के और कर ही क्या सकता हूँ? साधु-सुना है तुम उन्हें तहखाने की सैर कराना चाहते हो? क्या यह बात सच है ? दिग्दि-मै उन्हें एक ही क्योंकर सकता हूँ? साधु-ऐसा कभी नहीं होना चाहिए। तुम्हें मेरी बातों का विश्वास है कि नहीं? दिग्वि-विश्वास क्यों न होगा? आपको में गुरु के समान मानत हूँ और आज तककुछ जो मैने किया आप ही की सलाह से किया। साधु-केवल यही आखिरी काम बिना मुझसे राय लिए किया सो उसमें यहाँ तक धोखा खाया कि राज्य से हाथ धो बैठे। दिरिब–वेशक ऐसा ही हुआ खैर अब जा आज्ञा हो किया जाय । साधु मै नहीं चाहता कि तुम वीरेन्दसिह के तावेदार बनो इस समय वे तुम्हारे कब्जे में हैं और तुम उन्हें हर तरह से कैद कर सकते हो। दिग्वि-(कुछ सोच कर ) जैसी आज्ञा परन्तु मेरा लडका अभी तक उनके कब्जे में है। साधु-उसे यहाँ लाने के लिए चीरेन्द्रसिह का आदमी जा ही चुका है वीरेन्द्रसिह वगैरह के गिरफ्तार होने की खबर जब तक चुनार पहुँचेगी उसके पहिले ही कुमार वहाँ से रवाना हो जायगा। फिर वह उन लोगों के कब्जे में नहीं फंस सकता उसका ले आना मेरा जिम्मा। दिग्वि-हर एक बातों को विचार लीजिए मै आज्ञानुसार चलने को तैयार हूँ। इसक वाद घण्टे भर तक साधुमहाराज और राजा दिग्विजयसिह में बातें होती रहीं जिसे यहॉ लिखने की कोई जरुरत नहीं है। पहर रात रहे याबाजी वहाँ से विदा हुए। उसके दूसरे ही दिन राजा वीरेन्द्रसिह को खबर मिली कि लाली का पता नहीं लगता न मालूग यह किस तरह कैद से निकल कर भाग गई, उसका पता लगाने के लिए कई जासूस चा रस का किये गये। अब महाराज दिग्विजयसिह की नीयत खराब हो गई और वे इस बात पर उतारू हो गए कि राजा बीरन्दसिह उनके लड़के और दोस्तों को गिरफ्तार कर लेना चाहिए खाली गिरफ्तार नहीं मार डालना चाहिए। राजा वीरेन्द्रसिह तहखाने में जाकर वहीं का हाल देखा और जाना चाहते थे मगर दिग्विजयसिह हीले हवाले में दिन काटने लगा। आखिर यह निश्चिय हुआ कि कल तहखाने में अवश्य चलना चाहिए। उसी दिन रात को दिग्विजयसिह ने राजा विरेन्द्रसिह की फिर ज्याफत की और खाने की चीजों में बेहोशी की दवा मिलाने का हुक्म अपने एयार रामानन्द को दिया। वेचारे राजा वीरेन्दसिह इन बातों से बिल्कुल देखयर थे और उनके ऐयारों को भी ऐसी उम्मीद न थी आखिर नतीजा यह हुआ कि रात को भोजन करने के बाद सभी पर दवा ने असर किया। उस समय तेजसिह चौके और समझ गये कि दिग्विजयसिह ने दगा दिया मगर अब क्या हा सकता था? थोड़ी देर बाद राजा बीरेन्द्रसिह कुँअर आनन्दसिह तेजसिह पण्डित बद्रीनाथ ज्योतिषीजी और तारासिह वगेरह बेहोश होकर जमीन पर लेट गये और बात की बात में हथकड़ियों और बड़ियों से बेवस कर उसी तिलिस्मी तहखाने में कैद कर दिए गये। उस तहखाने से बाहर निकलने के लिए जो दो रास्ते थे उनका हाल पाठक जान ही गय होंगे क्योंकि ऊपर उसका बहुत कुछ हाल लिखा जा चुका है। उन दोनों रास्तों में से एक रास्ता जिससे हमारे ऐयार लोग और कुँअर आनन्दसिह गये थे बखूबी बन्द कर दिया गया मगर दूसरा रास्ता जिधर से कुन्दन (धनपति) किशोरी को लेकर निकल गई थी ज्यों का त्यों रहा क्योंकि उसकी खबर राजा दिग्विजयसिह को न थी चन्द्रकान्ता सन्तति भाग ५ ३२१ २१