पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१४४

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६ . सी दुनाली पिस्तौल गोली भर कर कमर में छिपा ली और कुछ गोली बारूद अलग भी रख लो ऊपर से गेरुये रंग का लम्बा लवादा पहिर हाथ में एक बड़ा सा चिमटा ले लिया ओर अपन माथ दो बहादुरों का भी ऐसी ही सूरत बना उनकी कमर में भी एक पिस्तौल और छुरी छुपा कर ऊपर से गेरुआ लवा अवा पहिरा उनके हाथ में भी एक भारी चिमटा दे दिया। तब सिर्फ इन्हीं दो आदमियों का साथ लेकर बाकी सभा को घर की तरफ लौटा कर पैदल वा स रवाना हुए ओर पहिले उसी तहखाने की तरफ चले जिसमें वहादुरसिर कैद था । कुछ रात जा चुकी थी जब ये तीनों आपनी वनदेवी के मन्दिर स रवाना हुए। पन्द्रमा निकल आया था उसकी सुन्दर चांदनी चारों तरफ फैल गई थी। आसमान पर छोट छाट वादल के टुकड़े मन्द मद इवा क झोकों से धीर धीरे दौड रहे थे। कभी थोड़ी देर के लिए चन्द्रमा वादलों में छिप जाता मग तुरन्त ही उस टुकड़के हट जाने से निकल आता था। एक पहर रात जाते जाते ये तीरों आदमी उसी नाल के किनार पहुँच जाहा कटादुरसिंह से मुलाकात हुई थी। जगजीत सिहके दोनों साथियों का नाम जयसिह और हरीसिह था। ये दोनों बड़े वहादुर ओर लड़ाई के फन में यकता थे। नरेन्द्रसिह के बाप उदयसिह के दरबार में इन दोनों की अच्छी कदर थी और लडाइ मिड़ाई के काम में इा दानों की बराबर राय ली जाती थीं। जयसिह की उम्र पचास वर्ष के ऊपर थी मगर हरीसिह अभी पचीस वर्षका दिलावर मानहार बहादुर था। जयसिंह ने कहा देखिए आसमान पर बदली गहरी होती जाती है याडी दर में पानी जरूर वरसगा। एसे समय दूर का रास्ता पकडना मुनासिब नहीं है. पास ही आपका शिकारगाह है वहाँ चलिये। शिकार खेलन का तहयाना भी आज साफ है उसी मे डरा । अगर पानी बरसा तो रात उसी जगह काटेंग नहीं तो चादनी तिफल आने पर उधर का रास्ता पकडेंगे जहा जाने का निश्चय कर चुके हैं। जगजीतसिह ने इस बात को पसन्द किया और रात उसी तहखाने में काटी पानी भी स्वेर तक खूब बरसता रहा। दूसरे दिन सवेरे पानी खुलने पर ये लोग वहाँ से रवाना हुए। जगजीतसिह ने सोचा कि पहिले उत्त ठिकाने चलना चाहिए जहा बहादुरसिह कैद था, जरूर कुछ न कुछ पता लग ही जायगा। जगजीतसिह को इस बात का डर न या कि वहा डाकुओं की मण्डली भारी होगी और हमलोग कुल तीन ही आदमी हैं क्योंकि एक तो यह तीनों अपने साज सामान और ताकत के एसे पूरे थे कि दस बीस आदमियों का भगा दना इन लोगों के सामने कोई बडी घात न थी दूसर जगजीतसिह अल्हडों की तरह सिर्फ दो ही आदमी साथ लेकर नरेन्द्रसिह की खोज में नहीं निकले थे बल्कि उन्होंने बहुत कुछ सामान अपन लिए कर के तय घर से बाहर पैर निकाला था। उन्होने और क्या सामान किया था इसके कहने को अभी कोई जरूरत नहीं समय पड़ने पर आप ही मालूम हो जाएगा। रास्ते में कोई घटना नहीं हुई और चौथे दिन दोपहर को ये तीनो उस तइयाने के पास पहुंच गए जिसमें वहादुरसिह केद था। !


-- इस जगह कोई इमारत न थीन काई मकान ही था कोई ऐसा निशान भी नहीं दिखाई देता था जिसस मालूम हो कि वहा जमीन के अन्दर कोई तहखाना है हा बहादुरसिंह ने तहखाने की पहचान जगजीतसिट को बता दी थी इसलिए इनको मालूम हो गया था कि यहीं वह तहखाना है जिसमें यहादुरसिह कैद था। इस जगह एक निहायत उम्दा बहुत बडा सगीन कूआ देखने में आया जिसकी कुर्सी जमीन से तीन हाथ ऊची थी। कूए के ऊपर जाने के लिए चारो तरफ पत्थर की सीढियाँ बनी हुई थी। हरी-यही वह कूओं मालूम होता है। जगजीत--इसमें कोई शक नहीं कि यह वही कुऑ हे जिसे बहादुरसिह ने तहखाने का दर्वाजा कहा था। चारो तरफ की सीढियों को अच्छी तरह देखो, किसी सीढी के नीचे बगल में दर्वाजा होगा। जय-(चारों तरफ देख कर और एक सीढी के पास खडे होकर) दर्वाजा तो कोई नहीं है मगर यहाँदाजा होने का एक निशान जरूर मालूम होता है. आप जरा इधर आइये और देखिए। जगजीत --(जयसिह के पास जाकर और देख कर ) क्या निशान है? जय-यह जमीन नम (गीली) मालूम हाती है, मैं समझता हूँ डाकुओं ने यह जगह छोड़ दी और ईट से यह दर्वाजा बन्द कर चूना चढा बराबर कर दिया है। (चिमटे से खोद और एक ईंट निकाल कर) देखिए अब साफ मालूम हाता है। जगजीत-छोड़ दो, अब खोदना व्यर्थ है। जय-खोदना व्यर्थ न होगा चाहे डाकुओं ने यह जगह छोड़ दी हो मगर हाल चाल लेने के लिए कोई न कोई डाकू यहाँ रोज जरूर आला होगा, क्योंकि उन लोगों को भोलासिह के फंस जाने से बहुत कुछ डर पैदा हो गया होगा। मेरी राय है कि दर्याज़ा साफ कर दिया जाय और इसी कूए पर हम लोग डेरा डालें। जव डाकुओं में से कोई पता लगाने के लिए यहाँ आयेगा इसको खुदा हुआ देख उसे जरूर शक होगा। उस समय हमलोग उसकी सूरत और आकृति ही से पहिचान जायेंगे कि यह डाकू है। जगजीत-बात तो ठीक है, अच्छा ऐसा ही करो। देवकीनन्दन खत्री समग्र ११४६