पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१२४

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out खयाल न किया झट म्यान से तलवार निकाल ली और उछल कर नाव के ऊपर चढ़ गये, मगर वहाँ किसी को न पाया। उन शेतानों में से एक भी वहा न था जिन्हें पहली मर्तवे देखा था हा कुछ गठडियों ओर दस पॉच कुल्हाडियों इधर उधर जरूर पड़ी थी। वहादुर नरेन्द्र इस गम को बर्दाश्त न कर सके । उनका सिर घूमने लगा और नगी तलवार हाथ में लिये हुए ही बदहवास हो कर उसी नाव पर धम्म से गिर पडे । छठवॉ बयान . - एक छोटी सी कोठरी में आले पर चिराग जल रहा है तीन तरफ दीवार है और एक तरफ लोहे के मोटे मोटे छड लगे हुए हैं जिनमें एक छोटा सा दर्वाजा लोहे की सीखों का बना हुआ लगा है जो इस समय बद है और उसमें बाहर से ताला बद है और जिसके पास ही एक आदमी बैठा हुआ है, शायद पहरे वाला हो। यह मकान हर तरफ से बद है, कहीं से आस्मान दिखाई नहीं देता। आजकल शुक्ल पक्ष है मगर चन्द्रमा की रोशनी भी कहीं नहीं दिखाई देती जिससे मालूम होता है कि शायद यह जमीन के अन्दर कोई तहखाना है जहा दिन और रात का भेद कुछ नहीं जाना जाता। इसी कोठरी के अन्दर बहादुरसिह बैठा हुआ धीरे धीरे कुछ बोल रहा है। 'हाँ कहते थे नालायक से कि मुझे मत सता मैं ब्राह्मणहूँ, मेरी आह पडेगी तो जल कर भस्म हो जाएगा । मगर सुनता कौन है ? अपनी बहादुरी के नशे में वह मानता किसकी है ? दौलत के घमण्ड में वह किसी को समझता ही क्या है खूबसूरत पॉच औरतें क्या मिल गई कि दिमाग आस्मान पर चढ़ गया ! रहो बचा, दो औरतें तो छिन ही गई बाकी की तीनों भी छिन जाती है और जगल में गडी हुई तेरी दौलत भी तेरे हाथ से निकल जाय तब मेरा कलेजा ठण्डा हो । नालायक मैंने तेरा क्या बिगाडा था कि मुझे राह चलते पकड लिया और साल भर से मुफ्त में अपनी खिदमत करा रहा है जान भी नहीं छोडता। हाय ! मेरे माँ बाप, लड़के वाले जोरू जाने क्या कहते होंगे. मुझे कहाँ कहाँ ढूँढते होंगे। खैर उनकी तो कुछ पर्वाह नहीं, मेरा तो शरीर ही सकट में पड़ गया था, दिन में बीस बीस मर्तये गदहे को भग पीस पीस के पिलानी पडती थी। चलो उससे तो छुट्टी हुई ! मेरा क्या? वहाँ भी खाने को मिलता था यहाँ भी मिलेगा घोडे को कोई ले जाय खाने को घास तो देहीगा। मेहनत से जान बची अव इसी कोटडी में बैठे डण्ड पेलेंगे ! वाह रे बहादुरसिह तू भी किस्मत का बडा ही जबर्दस्त है । कोठडी के बाहर बैठा हुआ पहरेवाला अपनी गर्दन नीचे किये हुए बहादुरसिह की यह भनभनाहट सुन रहा था। जब बहादुरसिह अपनी बात तमाम कर चुका तब उसने इनकी तरफ सिर उठा कर देखा और कहा-“मालूम होता है आपका नाम बहादुरसिह है " वहादुर - (चौक कर ) है यह आपने कैस जाना? पहरे - आपकी बातों से ही मालूम होता है । बहादुर - हमारी कौन सी बातें ! पहरे - अजी अभी तो तुम कह रहे थे कि 'वाह वहादुरसिह तू भी किस्मत का बडा जबर्दस्त है । बहादुर - हाँ ठीक है मेरा नाम बहादुरसिह है । पहरे - आप बडे ही लापरवाह मालूम होते हैं ! बहादुर - हॉ भाई साहब लापरवाह तो हई है और फिर आप ही सोचिये कि मेरे जैसा आदमी अगर लापरवाह न होगा तो और दुनिया में होगा कौन ? जात का ब्राह्मणहूँ, कहीं रहूँ, कोई खाने को दे, मुझे ले लेने में कोई शर्म नहीं कमा कर खाने की कोई फिक्र नहीं | जोरू के पास कुछ रूपये है, वही अपना सौदा सुलफ बाजार से लाती है पकांती है खिलाती है, महीनों तक पीने के लिए भग भी वही बेचारी ला देती है मैं मजे में घोटता हूँ और पीता हूँ ! फिर मुझे फिक्र काहे की? हाँ थोडे दिन इस नालायक नरेन्द्र के साथ रहना पड़ा तो अलवत्ते कुछ फिक्र ने आ घेरा था जब जरा आराम से बैठे यस झट हुक्म हुआ भग पीसो यहाँ तक कि दिन रात भग पीसते पीसते जी घबडा गया था पर अब उससे भी बेफिक्र हूँ। यहाँ तो काम काज कुछ करना ही नहीं है बैठे बैठे खाना है हॉ भग की तकलीफ कहीं न हो जाय सो खैर आपकी कृपा 'होगी तो भग भी पीने को मिल ही जायगी। आज मैं अपने हाथ की बूटी पिलाऊँगा। देखो तो उसके आगे स्वर्ग कुछ मालूम पड़ता है ? और सब से भारी बात तो यह है कि मुझे कुछ लालच नहीं । लालब के नाम ही से मै कोसों भागता हूँ, नहीं तो नरेन्द्र की लाखों रूपये की सम्पत्ति जो मेरे आखों के सामने रखी हुई है ले लेता और मजे में राजा बन के बैठता ! मगर मैं सोचता है कि राजा से हजार दर्जे बढकर खुशी से मैं अपनी जिदगी काट रहा हूँ तब कौन साला रुपये बटोर कर अपने ऊपर कम्बख्ती ले ।। पहरे -सच है सच है (मन में ) यह कुछ पागल भी मालूम होता है । अगर नरेन्द्रसिह का खजाना इसे मालूम है तो फुसला कर पता ले लेना कोई बड़ी बात नहीं है। बहादुर - क्यों भाई तुम भग पीते हो कि नहीं? देवकीनन्दन खत्री समग्र ११२६