पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१२०

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दि ता क जी का हौसला मिटा लें। नरन्द - वाह. औरा स कुश्ती लड़ कर पहलवानी दिखाओग? वहादुर-जी हा कल के लड़क हा कभी औरता से पाला नहीं पड़ा है। सुना और मेरी नसीहत याद रक्खा, दस मर्दो स लड़ जाना काई मुश्किल नहीं मगर एक भी ओरत का मुकाविला करना टेढी चीर हाता है। नरन्द्र - सच है सच है लकिन भला यह तो कहो कि तुम इस जगल में कहा से पैदा हो गय? बहादुर - तुम ता चुपचाप घरस निकल भाग समझ कि यस हा चुका अव पता कौन लगाता है। मगर इसका भूल ही गये कि में चालीस कम दो कास स तुम्हारी यूपा लता र खाजता खाजता आखिर आ ही न पहुंचा। मै ता डरा ( रुक कर राम राम इरा काह को मै ता किसी म कभी डरता ही नहीं कहन की कुछ मुंह से निकलता हे कुछ ! दानों औरत-(हॅस कर ) क्या डीग की लत है शरखी किय विना न मालूम क्या बिगड़ा जाता है । अजी एस जगल बियावान म जहा हजारों डाक घूमत रहत है बड़ बडे डर जाते है अगर तुम डर ता कोन सी बात है। यहादुर-सच ता का मगर में कहीं डरता ही नहीं हा यह ता कहो क्या सचमुच इस जगल म डाकू घूमा करते हैं? नरेद्र - यशक, अभी हमी स डाकुओं की मुटभड़ हो गई थी, बार किसी तरह बच गय । बहादुर - अफसास हम न हुए नहीं ता एकीकाभी जीता न गड़त हा यह वताओं के डाकू थ ? नरन्द्र - यही कोई चालीस पचास । बहादुर - बस इतना ही ! इतन्ग मला क्या उरना? अच्छा इन सब याता का जाने दो और मरी सुनो ! अव सवरस हुआ चाहता है, यह किनार वाला जगल भी बडा ही रमणीक है, चलो किश्ती किनार लगाओ में भग पीसता हूँ तुम भी पीया ओर इन दानों का भी पिलाआ। यह भी क्या याद करंग कि किसी के हाथ की मग पी थी। बस इसी जगह दिशा फगगन स्नान पूजा स छुट्टी पा कर फिर जहां चाहे चलना।

  • अच्छा चला कह कर नरेन्द्र न डाउ उठाया और किश्ती का मुंह किनारे की तरफ फरा ही था कि किनारे स

गीदड़ के चिल्लान की आवाज आई। वहादुर - धस वस, नहीं नहीं इधर नहीं, और आग चला। यह जगल किसी काम का नहीं चपर्द है आग घने जगल में ठीक रहगा। इतना सुनत ही दाना औरन खिलखिला कर ईंग पी और नरेन्द्र ने भी मुस्कुरा दिया। वहादुर - घस बात ता साधा नहीं और हॅस दिया। क्या तुम लोगों न समझ लिया कि बहादुरसिह गीदड की आवाज सुनकर डर गय? एसा ही इरत ता तुमका खाजन क्या निक नते ? मुझका आज रास्ते में ऐस एस जगल पड है जहा पचासा ण्ड इक? एक से एक सट और चिपक दिखाई पड़ते थे। बहादुर सिंह की इस बात न तीनों का ओर भी हमाया, नरेन्द्र ता जानत हीथ कि वहादुरसिह बड़ा ही डरपोक । मगर बात बनाने से नहीं चूकता यह ना उाकी मुहब्बत में घर स निकल पड़ा नहीं तो कभी अकेला दूर जाने वाला थाड ही था। नरन्द्र - बस जा अमल बात थी तुमने खुद कह दी। यह भी मालूम हा गया कि तुम बडे बडे धन जगला को पार करते हुए मुझसे मिल हा उस छाट जगल में नहीं पहुंचे जहाँ में फंसा था। यहादुर-जी हा इसन भी काई झूट है। अरे अर, फिर तुम किनारे ही पर किश्ती लिंय जा रह हो ! सुनत नहीं में क्या कहता हू, !! परद-(झुसला कर ) अजय उल्लू है !क्या सैकडॉ कास तक जगल ही मिलता जायगा? जगल कच का पीछे छूट गया यह भी काई जगल है ? दस वीस बरी क पड़दखे और कह दिया जगल है अब कौन सा घना जगल मिलेगा? दखता नहीं आगे बालू ही बालू दिखाई देता है। यहादुर-वाह, मुझी का उल्लू बनान लग, में ता खुद ही कहता हूं कि आग किसी जगल क किनार नाव लगाआ यहा मैदान है। नरन्द्र यस चस, आग यह भी नहीं मिलगा। नरन्द्र न वहादुरसिह की वकवाद पर ध्यान न दिया और किश्ती किनारे पर लगा कर वहादुरसिह से उतरन क लिय कहा मगर वह न उतरा, कहने लगा, म इसी किश्ती पर भग बना लूंगा तय उतरूँगा, और तुम भी बैठो जल्दी क्या है अभा ता अच्छी तरह सवरा भी नहीं हुआ। औरत - अच्छा इनका यहा चैटन दा चला हम लोग नीच उतरें। नरेन्द्र--अच्छा चलो। नन्दन लग्गी गाड़क किश्ती बाँध दी, तब हाथ का सहारा दाना ओरतो को किनारे पर उतारा और उनके बैठने कलिय अपनी कमर से चादर योल जमीन पर विछा दिया। जब से नरन्दन दाना ओरता को फांसी और कब से बचाया ओर किश्ती पर सवार होकर पूर चन्द्रमा में इनकी सूरत देवकीनन्दन खत्री समग्र ११२२