पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१००

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art जब इन्ददेव के मकान पर पहुचा तो देखा कि ये सफर की तैयारी कर रहे है, पूछने पर जवाब मिला कि गोपालसिंह बीमार हो गये है, उन्हें देखने के लिए जाते हैं। सुनने के साथ ही मेरा दिल धडक उठा और मेरे मुँह से ये शब्द निकल पड़े-'हाय अफसोस ! कन्यस्त दुश्मन लोग अपना काम कर गए ॥" मेरी बात सुन कर इन्द्रदेव चौक पडे और उन्होंने पूछा, आपने यह क्या कहा?" दो चार खिदमतगार वहां मौजूद थे उन्हें विदा करके मेन गिरिजाकुमार का सब हाल इन्द्रदेव से बयान किया और दारोगा साहब की लिखी हुई वह चोटी उनके हाथ पर रख दी। उसे देख कर और सब हाल सुन कर इन्द्रदेव बेचैन हो गए आधे घटे तक तो ऐसा मालूम होता था कि उन्हें तनोबदन की सुध नहीं है, इसके बाद उन्होंने अपने को सम्हाला और मुझसे कहा-' वेशक दुश्मन लोग अपना काम कर गए मगर तुमने भी बहुत बडी भूल की कि दो दिन की देर कर दी और आज मेरे पास खबर करने के लिए आए ! अभी दो ही घडी बीती है कि मुझे उनके बीमार होने की खबर मिली है, ईश्वर ही कुशल करें !" इसके जवाब में चुप रह जाने के सिवाय मै कुछ भी न बोल सका और अपनी भूल स्वीकार कर ली। कुछ और बातचीत होने के बाद इन्द्रदेव ने मुझसे कहा, खैर जो कुछ होना था सो हो गया, अब तुम भी मेरे साथ जमानिया चलो, वहाँ पहुचने तक अगर ईश्वर ने कुशल रक्खी तो जिस तरह बन पडेगा उनकी जान बचावेंगे ! अस्तु हम दोनों आदमी तेज घोडों पर सवार होकर जमानिया की तरफ रवाना हो गये और साथियों को पीछे से आने की ताकीद कर गये। जब हम लोग जमानिया के करीब पहुचे और जमानिया सिर्फ दो कोस की दूरी पर रह गया तो सामने से कई देहाती आदमी रोते और चिल्लाते हुए आते दिखाई पड़े। हम लोगों ने घबडा कर रोने का सच पूछा तो उन्होंने हिचकियों लेकर कहा कि हमारे राजा गोपालसिह हम लोगों को छोडकर चैकुंठ चले गये। सुनने के साथ हम लोगों का कलेजाधक हो गया। आगे बढ़ने की हिम्मत न पडी और सड़क के किनारे एक घने पेड के नीच जाकर घोडों पर से उतर पडे। दोनों घोड़ों को पेड़ के साथ बाँध दिया और जीनपोश बिछा कर बैठ गये आँखों से आंसू की धारा बहने लगी घटे भर तक हम दोनों में किसी तरह की बात-चीत न हुई क्योंकि चित्त बड़ा हीदुखी हो गया था। उस समय दिन अनुमान तीन घटे के बाकी था, हम दोनों आदमो पेड़ के नीचे बैठे आँसू बहा रहे थे कि यकायक जमानिया से लोटता हुआ गिरिजाकुमार भी उसी जगह आ पहुचा। उस समय उसकी सूरत बदली हुई थी इसलिए हम लोगों ने तो नहीं पहिचाना परन्तु वह हम लोगों को देख कर स्वय पास चला आया और अपना गुप्त परिचय देकर योला में गिरिजाकुमार हूँ। इन्द्रदेव-(ऑसू पोछ कर) अच्छे मौके पर तुम आ पहुचे? यह बताओ कि क्या वास्तव में राजा गोपालसिह मर गये? गिरिजा-जी हाँ उनकी चिता मेरे सामने लगाई गई और देखते ही देखते उनकी लाश पचतत्व में मिल गई परन्तु अभी तक मेरे दिल को विश्वास नहीं होता कि राजा साहब मर गये। इन्द्रदेव-( चौक कर ) सो क्या? यह कैसी बात? गिरिजा-जी हॉ. हर तरह का रग ढग देख कर मेरा दिल कबूल नहीं करता कि वे मर गये। मैं क्या तुम्हारी तरह यहाँ और भी किसी को इस बात का शक है? गिरिजा-नहीं ऐसा तो नहीं मालूम हाता बल्कि मैं तो समझता हू कि खास दारोगा साहब को भी उनके मरने का विश्वास है मगर क्या किया जाय मुझे विश्वास नहीं होता और दिल बार बार यही कहता है कि राजा साहब मरे नहीं। इन्द्रदेव- आखिर तुम क्या सोचते हो और इस बात का तुम्हारे पास क्या सबूत है? तुमने कौन सी ऐसी बात देखी जिससे तुम्हारे दिल को अभी तक उनके मरने का विश्वास नहीं होता? गिरिजा-और बातों के अतिरिक्त दो बातें तो बहुत ही ज्यादे शक पैदा करती है। एक तो यह है कि कल दो घटे रात रहते मैने हरनामसिह और विहारीसिह को एक कंगले की लाश उठाये हुए चोर दर्वाजे की राह से महल के अन्दर जाते हुए देखा, फिर बहुत टोह लेने पर भी उस लाश का कुछ पता न लगा और न वह लाश लौटा कर महल के बाहर ही निकाली गई. तो क्या वह महल ही में हजम हो गई? उसके बाद केवल राजा साहब की लाश बाहर निकली। इन्द्रदेव-जरूर यह शक करने की जगह है। गिरिजा-इसके अतिरिक्त राजा गोपालसिह की लाश को बाहर निकालने और जलाने में हद दर्जे की फुर्ती और जल्दीबाजी की गई यहाँ तक कि रियासत के उमरा लोगों के भी इकट्ठा होने का इन्तजार नहीं किया गया। एक साधारण आदमी के लिए भी इतनी जल्दी नहीं की जाती दे तो राजा ही ठहरे !हाँ एक बात और भी सोचने के लायक है !चिता पर देवकीनन्दन खत्री समग्र