अपने बेटे बलवन्तसिंह के लिए नवाब से राजा का ख़िताब और बनारस का इलाक़ा प्राप्त किया। १७६३ में बलवन्तसिंह ने शाहआलम और शुजाउद्दौला के साथ बंगाले पर चढ़ाई की। परन्तु बक्सर की लड़ाई में अंगरेजों की जीत होने पर बलवन्तसिंह ने उनसे मेल कर लिया। अंगरेज़ों ने बनारस की ज़मींदारी पर कर लगाकर,अर्थात् मालगुजारी देने के वादे पर, बलवन्तसिंह का क़ब्जा बना रहने दिया,बलवन्तसिंह के बेटे चेतसिंह ने वारन हेस्टिंग्ज़ की मर्ज़ी के मुवाफ़िक काम नहीं किया; उसकी अनुचित आज्ञा को नहीं माना। इससे हेस्टिंग्ज़ ने चेतसिंह को क़ैद कर लिया; क़ैद से निकल कर चेतसिंह ने अँगरेज़ों पर हमला किया; पर कामयाबी न हुई। चेतसिंह की जमींदारी छिन गई। उसका कुछ हिस्सा बलवन्तसिंह के पौत्र महीपनारायणसिंह को मिला। वर्तमान काशी-नरेश, महाराज श्री प्रभुनारायणसिंह, महीपनारायणसिंह के बाद तीसरे महीप हैं।
जब चेतसिंह की जमींदारी छिन गई तब उसके प्रम्वन्ध के लिए बनारस में च्यरी साहब रेज़िडंट नियत किये गये। उस समय लखनऊ का नव्वाब वज़ीरअली बनारस में था वह गद्दी से उतारकर बनारस में रखा गया था। १७९९ ईसवी में वह बिगड़ खड़ा हुआ और च्यरी साहब के साथ दो अँगरेज़ और मारे गये। पीछे से वज़ीरअली पकड़ा गया। और आमरण कलकत्ते में क़ैद रहा।
शकल-सूरत आदि
अनुमान किया जाता है कि सब से पुराना नगर सारनाथ के