अर्थात् इस प्रजापालक, धर्मज्ञ, नरपतितिलक, पद्मपाल राजा के बनवाये हुए इस विष्णु-मन्दिर को उँचाई मैं वाणी से किस प्रकार वर्णन करू? यह तो इतना ऊँचा है कि इसके शिखरपर बैठा हुआ सिंह, मृगाङ्क (चन्द्रमा) के मृग को, मानो निगल जाना चाहता है।
इस मन्दिर में जो शिलालेख है वह प्रशस्ति के रूप में है। उसमें ११२ श्लोक हैं। उनमें पहले पद्मपाल के वंशजों का थोड़ा थोड़ा वर्णन है;फिर स्वयं पद्मपाल का। पद्मपाल का वर्णन कुछ अधिक है। परन्तु लेख का अधिक भाग राजा महीपाल की तारीफ़ से भरा हुआ है। महीपाल ही की आज्ञा से यह प्रशस्ति बनी थी। संस्कृत में सब से अच्छे काव्य का यह एक उत्कृष्ट नमूना है। यह कविता मणिकण्ठ सूरि नामक कवि की रचना है। माहुल सिंहराज और पद्मनाभ नाम के दो शिल्पियों ने इस प्रशस्ति को खोदा था । मणिकण्ठ ने इसकी रचना ११४९ वैक्रमीय संवत में की थी। मणिकण्ठ जी अपनी तारीफ़ इस प्रकार करते हैं-