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जयपुर


है। इसकी भीतरी भव्यता और शिल्प-सुन्दरता का अन्दाज़ा उन्हींको हो सकता है जिन्होंने उसे देखा है। इसके नीचे के खण्ड में महाराजा का दीवाने-ख़ास है। वह बिलकुल संगमरमर का है। सादा होकर भी वह शिल्प-कौशल का उत्कृष्ट नमूना है। राजप्रासाद के सामने गोबिन्द जी का प्रसिद्ध मन्दिर है। महाराजा साहब यहां दर्शनार्थ आया करते हैं। जयपुर का बादल-महल रामकटोरा झील के किनारे है। इस झील में बेशुमार मगर हैं। वे पले हुए हैं। बुलाने से बाहर आ जाते हैं और खाने को जो कुछ दिया जाता है खाते हैं। इनमें से कितने ही जलचर किनारे पर बाहर पड़े पड़े धूप लिया करते हैं। कोई कोई मगर बहुत बड़े और बहुत पुराने हैं। यन्त्रशाला से मिली हुई महाराजा की अश्वशाला है। उससे कुछ दूरी पर महाराजा जयसिंह का हवामहल है। यह कई खण्डों की इमारत है और देखने लायक है। सुनते हैं, मुग़ल सम्राट की फरमाइश से महाराज ने यह महल बनवाया था। शहर-पनाह के बाहर जयपुर का रमणीय उद्यान है। यह बहुत बड़ा बाग है। इसका रक़बा कोई ७० एकड़ होगा। डाक्टर डि-शाबेक की निगरानी में यह बना था और ४ लाख रुपये खर्च हुए थे। इस बाग़ का सालाना खर्च कोई ३० हजार रुपये है। इसके बीच में "अलबर्ट हाल" है। १८७६ ईसवी में प्रिन्स आव् वेल्स (वर्तमान राजेश्वर सप्तम एडवर्ड) ने इसकी नीव डाली थी। इसीमें अजायब घर है। उसमें जो चीज़ें हैं एक से एक बढ़कर हैं। किसी की राय है कि हिन्दुस्तान में यह अजायब घर विलायत के "सौथ केन्सिंग्टन" के दरजे का है। इस बाग में सैकड़ों प्रकार के पशु-पक्षी और जीव जन्तु