ब्राह्मण विद्वान् मञ्जुश्री भी इन्हीं दो बौद्ध संघारामों में से एक में रहा करता था। उस समय पाटलीपुत्र में कितने ही ऐसे औषधालय थे, जहां बिना जाति अथवा जन्म देश के विचार के सब प्रकार के रोगियों की मुफ्त चिकित्सा होती थी ! रोगियों के आराम का बड़ा खयाल रक्खा जाता था। उनको सुपच भोजन मिलने की भी उचित व्यवस्था थी।
सातवीं शताब्दी के मध्य में दूसरा चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत में आया। उसने पाटलीपुत्र को बड़ी बुरी दशा में पाया। केवल नगर की टूटी फूटी चहारदीवारी मात्र उस समय उसके भूतपूर्व महत्व की चिन्ह-स्वरूप शेष रह गई थी। कुछ आवादी भी थी। चिरकाल तक पाटलीपुत्र को इसी अवस्था में पड़ा रहना पड़ा। लगभग एक हज़ार वर्ष के बाद, १५४० ईसवी में, पाटलीपुत्र के भाग्य ने फिर पलटा खाया। शेरशाह ने बादशाह हुमायूं को परास्त करके सूरवंश की नींव डाली। पाटलीपुत्र, जो अब पटना कहलाता था,सूरवंश की राजधानी बना। परन्तु अधिक समय तक श्री सम्पन्न न रह सका। थोड़े ही वर्ष बाद हुमायूं के बेटे अकबर ने सूरवंश का उच्छेद करके पटना का रामधानीत्व भी नष्ट कर दिया।
इसके बाद पटना में दो उल्लेखनीय घटनायें और हुई। पहली घटना है,१७६३ ईसवी में लाभग ६० अंगरेजों की हत्या। मीरक़ासिम उस समय बंगाल का नवाब था। उससे और ईस्ट इण्डिया कम्पनी से चुंगी के लेन देन के विषय में,कुछ झगड़ा हो गया। बात यहां तक बढ़ी कि नवाब और कम्पनी में लड़ाई ठन गई । कम्पनी की