पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/७७

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बिमला का मुंह सूख गया, परन्तु बुद्धि प्रकाश द्वारा बोली 'चुपचाप बाहर चले आओ' और उसका हाथ पकड़े पकड़े बाहर खींच ले गई रहीम उसके साथ चला गया। एकान्त में ले जाकर विमला ने उसे कहा छी, छी, छी, ! ऐसा कोई काम करता है? मुझको छोड़ के तुम कहां चले गए? मैंने तुम्हारे लिए कूओं में बांस डलवा दिए।'

एक बेर उस मधुर चितवन को देख फिर रहीम खां का रोष शांत हुआ और बोले, 'मैं जगतसिंह का सम्वाद देने को सेनापति को ढूंढ़ता था, जब वे न मिले तो फिर तेरे पास आया पर तू वहां थी ही नहीं, तेरी ही शोध में फिर रहा हूं।

बिमला ने कहा 'जब अतिकाल हुआ तो मैंने जाना कि तुम हमको भूल गये इसी लिए तुमको खोज रही हूं, अब क्यों विलम्ब करते हो! दूर्ग जय तो हो ही गया, अब भागने का उद्योग करना चाहिये।

रहीम ने कहा 'आज नहीं कल प्रातःकाल क्योंकि, बिना कहे कैसे चल सकता हूं! कल सेनापति से विदा होकर चलूंंगा।'

बिमला ने कहा, अच्छा चलो आज अपना गहना इत्यादि रखदें नहीं तो कोई लुटेरा ले लेगा।

सैनिक ने कहा,'चलो।'

रहीम को साथ लेने का यह अभिप्राय था कि उसके कारण दूसरा कोई सैनिक उस पर हाथ न डाल सकेगा और, यह बात शीघ्र देख पड़ी। थोड़ी दूर जाने के अनन्तर एक दल लुटेरों का मिला, बिमला को देख उन सबों ने कोलाहल किया।

"देखो कैसा पक्षी हाथ लगा।"