शेख़जी के माथे में पसीना भी निकल आया था, फिर ऐसे कोमल हाथों की हवा खाने को किसका जी न चाहेगा? प्रहरी ने उसका बन्धन खोल दिया।
बिमला थोड़ी देर तक अपने अंचल के झलती रही फिर बोली, शेख़जी? तुम्हारी स्त्री क्या तुमको चाहती नहीं?
शेख़ जी ने विस्मित होकर कहा, क्यों?
बिमला ने कहा शेख़ जी! कहते लाज लग्ती है किन्तु जो तुम हमारे पति होते तो मैं कभी तुमको लड़ाई पर न जाने देती।
प्रहरी ने फिर ठंढी स्वांस ली।
विमला बोली, "हा! तुम मेरे स्वामी न हुए"! और एक आह ली, इस आघात के सहने की प्रहरी को सामर्थ न थी और वह सरक कर विमला के समीप आगया, बिमला ने भी सरक कर उस को भरोसा दिया।
शेख को उसके अंग स्पर्श से "विहिश्त" में पहुँचने के लिये केवल तीन डण्डे शेष रह गए।
बिमला ने अपना हाथ प्रहरी के हाथ में दे दिया और बोली 'क्यों, शेख जी! जब तुम यहां से चले जाओगे तो क्या तुम को मेरा स्मर्ण रहेगा।
शे०| वाह, तुमको भूल जाऊंगा।
वि०| तो मैं तुम को अपने मन की बात बताऊंगी।
शे०| हां कहो।
वि०| नहीं, नहीं, मैं नहीं कहूंगी, तुम अपने जी में न जाने क्या समझो।
शे०| नहीं, नहीं, कहो, मैं तो तुम्हारा सेवक हूं।
वि०| मेरे मन में आता है कि अपने स्वामी को छोड़