पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/६६

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उसके कनपटी में लगा था। जब भली भांति देख लिया कि अब प्राण का लेश कुछ भी न रहा बर्छे को उसके कनपटी से निकाल लिया। उस मुर्दे के बस्त्र में एक पत्र भी पड़ा था। जगतसिंह ने इस पत्र को लेकर चांदनी में पढ़ा उसमें लिखा था।

"कतलू" खां के समस्त आज्ञाकारियों को उचित है कि पत्र वाहक की आशा प्रतिपालन करें।

कतलू खां।"

विमला ने भी सुना परन्तु उसने कुछ समझा नहीं। राजकुमार ने उसके निकट आकर सब बृत्तान्त कह सुनाया! विमला बोली युवराज यदि मैं यह जानती तो कदापि आप के लिए बर्छा न लाती और मैंने बड़ा पाप किया।

युवराज ने कहा बैरी के मारने में कुछ दोष नही वरन धर्म्म होता है।

विमला ने उत्तर दिया योधा लोग ऐसाही करते हैं पर मैं तो जानती हूं। और थोड़ा ठहर कर फिर बोली "राजकुमार अब यहां ठहरना अच्छा नहीं, दुर्ग में चलिए मैं द्वार खुला छोड़ आई हूं।

दोनों जल्दी २ चले। पहिले बिमला भीतर घुसी। राजपुत्र का हृदय और पांव कांपने लगा। प्रेम का पथ ऐसाही है। ऐसा तेजस्वी सेनापति जो शस्त्र धार के संमुख मुंह न मोड़ता इस पथ में पैर रखतेही कांपने लगा। लिखा है। "चढ़ी के मैं न तुरंग पै चलिवो पावक माहिं। प्रेम पंथ ऐसी कठिन सवहीं पावत नाहिं।"

बिमला पूर्वत खिड़की बन्द कर राजपुत्र को अपने में लेगई और बोली कि आप यहीं ठहरें मैं अभी