पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/६३

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बिमला ने कहा, "आप चिन्ता न करें मैं इसका प्रबंन्ध करके घर से चली थी।"

राजपुत्र ने हंसकर कहा, "क्या कोई चोर द्वार है क्या?" बिमला ने भी हंसकर कहा, "जहां चोर रहते हैं वही सिंह भी रहते हैं।"

फिर राजपुत्र ने कहा "बिमला, अब मेरे जाने का कुछ प्रयोजन नहीं है, मैं इसी अमराई में खड़ा हूं तू जाकर मेरी ओर से अपनी सखी से कह कि पन्द्रह दिन में अथवा महीने भर में अथवा वर्ष भर में एक बेर मुझको और दर्शन दे।"

बिमला ने कहा "यहां भी तो लोग रहते हैं आप मेरे संग चले आइए"।

रा०| तू कितनी दूर जायगी!

बि०| दुर्ग में चलिये।

राजकुमार ने सोच कर कहा 'बिमला यह तो उचित नहीं है। दुर्ग के स्वामी की आज्ञा है नहीं, मैं भीतर कैसे चलूं?'

बिमला ने कहा "कुछ चिन्ता नहीं?"

राजकुमार गर्वपूर्वक बोले 'राजपुत्रों को कहीं जाने मे चिन्ता नहीं है परन्तु देखो राजा के बेटे को बिना दुर्गेश की आज्ञा चोर की भांति भीतर जाना उचित नहीं है।'

बिमला ने कहा "मैं तो आपको संग ले चलती हूं!"

राजकुमार ने कहा 'तुम यह न जानो कि मैं परिचारिका समझ तुम्हारी बात काटता हूं किन्तु बताओ तो मुझको दुर्ग में ले चल कर क्या करोगी? और तुमको अधिकार कब है?'