पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/५९

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
[५६]


राजकुमार ने चिंता करके कहा, बिमला सच पता बताने में क्या मेरी कुछ हानि है?

बिमला ने कहा हां हानि है।

राजपुत्र फिर चिन्ता करने लगे। थोड़ी देर बाद बोले जो हो अब तो तुम हमारे चित्त को उद्वेगरहित करो, अब मन नहीं मानता। तुम जो शंका करती हो यदि वह सत्य हो तो क्या इस दुःख से कुछ विशेष क्लेश कर होगा। मैं केवल कुतूहल बस तुमसे मिलने को नहीं आया हूं क्योंकि यह समय कुतूहल का नहीं है, पन्द्रह दिन हुए मैंने घोड़े की पीठ के अतिरिक्त शय्या का दर्शणमात्र भी नहीं किया है, इस समय में व्याकुलता का मिस कर के आया हूं।

बिमला इन बातों को सुनकर बोली युवराज आप राजनीति में बिज्ञ हो बिवेचना करके देखो कि इस दुष्कर संग्राम के समय आप को काम क्रीड़ा करना उचित है! मैं दोनों के हित को कहती हूं आप मेरी सखी का ध्यान छोड़ दीजिए और अपने नियत कर्म्म में बद्धपरिकर होकर नियुक्त हूजिये।

युवराज खिसियायकर हंसने लगे 'प्यारी मैं उसको कैसे भूल जाऊं! उस प्राणेश्वेरी का चित्र मेरे पाहनहृदय पर ऐसा खचित होगया है कि बिधना भी उस को मिटा नहीं सकते और युद्ध की बात जो तूने कही सो तो मैं पहिले कह चुका कि जिस दिन से मैं तेरी सखी को देखकर गया हूं उस दिन से रणक्षेत्र में चलते फिरते जहां रहते हैं सर्वदा वही चन्द्र बदन आखों के सन्मुख रहता है बरन उसी के भ्रम से शत्रु के सिरच्छेदन में भी हाथ रुक जाया करता है। हे बिमला सच कह वह रूपरााशि कब देख पड़ैगी।