पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/५

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दूना अटारी समझ वह पुरुष घोड़े से उतर पड़ा और जाना कि घोड़े ने इसी पत्थर की सीढ़ी में ठोकर खाई थी। समीपवर्ती गृह का अनुभव कर उसने घोड़े को स्वेच्छा विहार करने को छोड़ दिया और आप धीरे २ सीढ़ी टटोल २ चढ़ने लगा और विद्युत प्रकाश द्वारा जान लिया कि जिसको अटारी समझा था वह वास्तविक देवमन्दिर है परन्तु कर स्पर्श द्वारा जाना कि द्वार भीतर से बन्द है। मन में चिन्ता करने लगे कि इस जन्य शून्य स्थान में इस समय भीतर से मन्दिर को किसने बन्द किया और वृष्टि प्रहार से घबरा कर केवाड़ा भड़भड़ाने लगे। जब कपाट न खुला तो चाहा कि पदाघात करें परन्तु देवमन्दिर की अप्रतिष्ठा समझ रुक गए तथापि हाथही से ऐसे ऐसे धक्के लगाये कि केवाड़ा खुल गया। ज्योंही मन्दिर में घुसे कि भीतर चिल्लाने का शब्द सुनाई दिया और एकाएक वायु प्रवेश से भीतर का दीप भी ठंडा होगया परन्तु यह न मालूम हुआ कि मन्दिर में कौन है, मनुष्य है, कोई मूर्ति है या क्या है। निर्भय युवा ने मुस्करा कर पहिले उस मंदिर के अदृश्य देवता को प्रणाम किया और फिर बोला कि “मन्दिर में कौन है?” परन्तु किसी ने उत्तर न दिया केवल आभूषण की झनझनाहट का शब्द कान में पड़ा, टूटे द्वार से वायु प्रवेश के रोकने के निमित्त दोनों कपाटों को भली भांति लगा कर पथिक ने फिर कहा “जो कोई मन्दिर में हो सुनो, मैं शस्त्र बांधे द्वार पर विश्राम करता हूं यदि कोई विघ्न डालेगा फल भोगेगा यदि स्त्री हो तो सुख से विश्राम करे राजपूत के हाथ में जब तक तलवार है कोई तुम्हारा रोआं टेढ़ा नहीं कर सकता।”