पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/४५

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और बैठ कर खाने लगा। जब दो तीन ग्रास खा चुका तब आसमानी ने कहा, चलो हुआ अब केवाड़ खोल दो।

दि०| इतना यह भी खा लूं।

आ०| अभी भण्डार नहीं भरा, उठो नहीं तो मैं कह दूंगी कि तूने बात कहके फिर खाया।

दि०| नहीं नहीं, ए देख मैं उठा और मुंह बिचका कर रहा सहा भात छोड़ कर कवाड़ खोल दिया।

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ग्यारहवां परिच्छेद।
आसमानी का प्रेम

आसमानी को भीतर आते देख दिग्गजने बड़े प्रेम से कहा आओ प्यारी।

आसमानी ने कहा, वाहरे—ठठोली करते हो?

दि०| नहीं तुमसे क्या ठठोली करैंगे।

आ०| इसी से तुम्हारा नाम रसिक दास है?

दि०| रसिकः कौपिको वास:। प्यारी तुम बैठो मैं हाथ धो आऊं।

आसमानी ने मन में कहा, हां हाथ क्यों न धोवोगे। हम अभी तुमको और खिलावेंगे कि? और कहा कि क्यों; हाथ क्यों धोते हो, सब भात खा न जाओ।

दिग्गज ने कहा "यह कहीं हो सकता है कि बात कहके और फिर भात खाय।"

आ०| और यह भात बचा जो है। क्या भूखे रहोगे।

दिग्गज ने मुंह बिगाड़ कर कहा, क्या करूं तूने खाने भी